सच्चे शिष्य की पहचान कैसे करें?

प्रभु यीशु के सच्चे शिष्य की पहचान कैसे करें? (3 Signs Of A True Disciple) सच्चे शिष्य के 3 चिन्ह

Posted by Anand Vishwas

September 19, 2020

प्रभु यीशु के सच्चे शिष्य की पहचान कैसे करें? (3 Signs Of A True Disciple) सच्चे शिष्य के 3 चिन्ह। अगर आप प्रभु यीशु के अनुयायी हैं तो यह जानना आपके लिए बेहद जरुरी है अन्यथा आप एक उद्देश्यपूर्ण जीवन नहीं जी सकते। शिष्य अपने जीवन के उद्देश्य को जाने इसलिए प्रभु यीशु ने उनके साथ पर्याप्त समय बिताया। (मरकुस 3:13-15)

मसीह में मेरे प्रियो, मसीही जीवन जो कि परमेश्वर के साथ निरन्तर बढ़ने वाला संबंध है। और हम इस संबंध के बारे में निरन्तर सीखते जा रहे हैं। जब आप किसी संबंध में होते है, तो जाहिर सी बात है तो आप आपस में बहुत सारा समय बिताते हैं, बातचीत करते हैं, एक दूसरे पर भरोसा करते हैं और आपका संबंध अलग दिखाई देने लगता है। 

प्रभु यीशु के सच्चे शिष्य की पहचान कैसे करें? (3 Signs Of A True Disciple) सच्चे शिष्य के 3 चिन्ह
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शब्द, व्यवहार, हाव – भाव से संबंधों की गहराई के सबूत सबको पता चलने लग जाते हैं। उदाहरण के लिए कोई पुरुष और स्त्री कहते हैं कि वे आपस में प्रेम करते हैं परन्तु उनके शब्दों और व्यवहार में वह प्रेम दिखाई नहीं देता है तो संबंधों की परख रखने वाला कोई भी व्यक्ति उनके संबंध की वास्तविकता पर संदेह करेगा।

मसीही जीवन का अर्थ ही है यीशु मसीह के साथ संबंध। यदि इस संबंध का कोई प्रमाण दिखाई नहीं देता तो किसी को भी इस संबंध के अस्तित्व के बारे में संदेह हो सकता है।

कैसे आप एक शिष्य की पहचान कर सकते हैं? या जान सकते हैं कि आप या कोई और सचमुच प्रभु यीशु के शिष्य हैं?

मसीही लोग, मसीही होने वाला कोई अलग पहनावा नहीं पहनते हैं जिससे पता चले कि वे प्रभु यीशु मसीह के अनुयाई हैं। लेकिन प्रभु यीशु ने कहा कि उसके शिष्य अलग दिखाई देने चाहिए। जो बात उन्हें दूसरों से अलग करती है उसका शारीरिक दिखावटी से कुछ लेना-देना है ही नहीं। प्रभु यीशु ने ऐसे कुछ गुणों को बताया जिन्हें देखकर लोगों को मालूम होता है कि आप सचमुच में प्रभु यीशु के शिष्य हैं।

आइए शिष्यता के उन गुणों के बारे में बात करते हैं, जिनके बारे में प्रभु यीशु ने बताया है।

1) एक सच्चे शिष्य को आप उसकी आज्ञाकारिता से पहचान सकते हैं।

यूहन्ना रचित सुसमाचार के आठवें अध्याय में यीशु जब फरीसियों से बातचीत कर रहे थे तो बहुत से लोगों ने प्रभु यीशु पर विश्वास कर लिया था। (यूहन्ना 8:30) इन विश्वास करने वाले यहूदियों से यीशु कहते हैं कि यदि तुम निरन्तर मेरी शिक्षाओं पर चलते रहो तो सचमुच तुम मेरे शिष्य ठहरोगे। (यूहन्ना 8:31)

निरन्तर प्रभु यीशु की शिक्षाओं पर चलना, उसके वचन में बने रहना ये साबित करेगा कि आप प्रभु यीशु के शिष्य हैं। यहां बात यह नहीं है कि प्रभु यीशु की शिक्षाओं पर चलने का प्रयास करके देखा जाए और जब इसमें मुश्किल लगे तो इन शिक्षाओं को छोड़ दिया जाए, बल्कि प्रभु यीशु की शिक्षाओं के पीछे चलने के लिए एक समर्पण की आवश्यकता होगी।

कई बार निरंतर आज्ञाकारिता के पीछे मजबूरी या डर होता है। पर यहां तो ऐसी कोई बात ही नहीं है। और यदि ऐसा होता भी, तो शिष्य कोई और अच्छा सा अवसर देखकर यीशु का अनुसरण करना छोड़ देते। परन्तु इसके विपरित यह वह आज्ञाकारिता है जो प्रेमपूर्ण संबंध से प्रेरित होती है।

उदाहरण के लिए एक छोटा बच्चा केवल डर या भय की वजह से ही अपने माता पिता का आज्ञापालन नहीं करता है बल्कि एक निश्चित भरोसे के कारण भी वह ऐसा करता है। क्योंकि उसे यह एहसास है कि उसके माता पिता उससे प्रेम करते हैं। फिर चाहे माता पिता के द्वारा प्रेम से की जाने वाली अनुशासन की प्रक्रिया को प्रेम के साथ जोड़कर वह देख ना पाए। परन्तु यह प्रेम उसके मन में माता पिता के प्रति भरोसे को पैदा करता है।

मसीह और उसके शिष्यों के साथ भी ऐसा ही है। हमें इसलिए बुलाया गया है कि हम निरन्तर उसकी शिक्षाओं का अनुसरण करें क्योंकि वो हमसे पूरे हृदय से प्रेम करता है। हमारी आज्ञाकारिता, प्रेम से प्रेरित है ना कि भय से। इसके बाद भी अगर हम कोई और विकल्प चुनते हैं तो हम उस सर्वोत्तम को छोड़ रहे हैं जो सदा धन्य है। 

प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को आज्ञा दी कि जाओ और शिष्य बनाओ और उन्हें सब आज्ञाओं को मानना सिखाओ जो आज्ञाएं मैंने तुम्हें दी हैं। (मती 28:19-20)

प्रभु यीशु के शिष्य होने के नाते अब शिष्यों का ये कर्तव्य है कि वे दूसरों को भी प्रभु यीशु के शिष्य बनाएं और आज्ञाकारी बने रहें। तभी तो हम प्रभु यीशु के शिष्य होंगे। (यूहन्ना 8:31)

2) एक सच्चे शिष्य को आप उसके दूसरों से प्रेम करने से पहचान सकते हैं।  

अपनी गिरफ्तारी और क्रूसित किए जाने से कुछ ही देर पहले ऊपरी कोठरी में अपने शिष्यों के साथ संगति करते हुए प्रभु यीशु ने शिष्यता के दूसरे चिन्ह के बारे में बताया। प्रभु यीशु ने कहा कि मैं तुम्हें एक नई आज्ञा देता हूं; एक दूसरे से प्रेम करो। जैसा मैंने तुमसे प्रेम किया, वैसे ही तुम भी एक दूसरे से प्रेम करो। और यदि तुम एक दूसरे से प्रेम रखते हो तो इसी से सब लोग जानेंगे कि तुम मेरे शिष्य हो। (यूहन्ना 13:34-35)

प्रभु यीशु के अनुसार मसीहियों के बीच में प्रेमपूर्ण संबंध को देखकर लोगों को इस बात का प्रमाण मिलता है कि इनका मसीह के साथ एक प्रेमपूर्ण संबंध है। यह एक ऐसी बात है जिसे व्यावहारिक तौर पर जीना बहुत बार मुश्किल हो जाता है। 

शायद शिष्यों को अब, प्रभु यीशु का उनके पैरों को धोना समझ आया होगा। क्योंकि प्रभु यीशु ने उनके पैरों को इसलिए धोया क्योंकि वो उनसे प्रेम करता था, और उनकी सेवा भी कर सकता था। ऐसा उसने किसी मजबूरी में नहीं किया था। (यूहन्ना 13:4-9) बल्कि यह तो एक ऐसा कार्य था जिसको शिष्यों में से किसी ने करना ना चाहा और एक सेवक के इस कार्य को यीशु के लिए छोड़ दिया। तभी यीशु ने उनसे कहा कि एक दूसरे से प्रेम करो, जैसा मैंने तुमसे किया है।

ऐसा प्रेम बहुत आकर्षक होता है। आरम्भिक कलीसिया के दिनों में ऐसा प्रेम प्रत्यक्ष था। (प्रेरितों 2:42-47) वे साथ में समय बिताते थे, धन सम्पत्ति में साझेदार होते, दूसरों की जरूरतों को पूरा करते, मिलकर आराधना करते, मिल बांटकर भोजन करते, आपस में दीनता के साथ रहते और संगति का असीम आंनद उठाते थे। वचन ये भी बताता है कि लोग भी उनको अच्छा मानते थे। प्रभु उद्धार पाने वालों को प्रतिदिन उनमें जोड़ता था।

आज अपने आप से हमें यह सवाल करना उचित रहेगा कि आज जब अविश्वासी लोग कलीसिया को देखते हैं, तो वे क्या सोचते हैं? क्या वे एक अलग रीति रिवाज को मानने वाला समाज, एक निष्क्रिय और एक विभाजित संस्था को देखते हैं या वे हमारे प्रेम को देखकर प्रभावित होते हैं? याद रखें कि प्रभु यीशु ने क्या कहा, यदि तुम आपस में प्रेम रखोगे तो सब जानेंगे कि तुम मेरे चेले हो।

3) एक सच्चे शिष्य को आप उसके फलवंत जीवन से पहचान सकते हैं।

यूहन्ना 15 अध्याय में प्रभु यीशु अपने शिष्यों को शिष्यता का एक तीसरा चिन्ह बताता है। यहां यीशु ने दाखलता और शाखाओं के उदाहरण के द्वारा अपने और शिष्यों के बीच के संबंध के एक उत्तम तस्वीर पेश की। यीशु ने अपने आप को दाखलता और शिष्यों को  शाखाएं बताया। (यूहन्ना 15:1-8)

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शाखाएं जो दाखलता से जुड़ी हुई हैं उनमें फल आना चाहिए। फल आने से पिता को आदर मिलता है, उसकी महिमा होती है। और जब शिष्यों का जीवन ऐसा फलदाई होगा तो वास्तव में उनके फलदाई जीवन से ये साबित होगा कि वे प्रभु यीशु के शिष्य हैं। (15:8)

प्रभु यीशु के शिष्य शायद ये समझ गए थे कि फल लाने का तात्पर्य क्या है? ऐसा हम इसलिए कह सकते हैं कि किसी भी चेले ने इस बारे में प्रभु यीशु से कोई सवाल नहीं किया। वचन में फल के उदाहरण का दो तरह से इस्तेमाल किया गया है।

  1. पुनरूत्पादन की दृष्टि से शिष्यों को आगे और शिष्य बनाने हैं, जैसे कि सेब का पेड़ बहुत से सेब पैदा करता है, या फिर आम का पेड़ बहुत से आम पैदा करता है और दाखलता अंगूर पैदा करती है। इसलिए जी उठने के बाद जब प्रभु यीशु ने उन्हें और शिष्य बनाने की आज्ञा दी तो उन्हें हैरानी नहीं हुई होगी क्योंकि शाखाओं का काम ही फल पैदा करना है। (मती 28:19-20)
  2. फल को उस चीज़ के उदाहरण के रूप में भी इस्तेमाल किया गया है जो प्रभु अपने शिष्यों के जीवनों में पैदा करना चाहता है। (गलातियों 5:22-23) इस बात को स्पष्ट करता है। 

यहां एक बात मैं आपको जरूर कहना चाहता हूं कि फल एक प्रक्रिया के बाद ही आते हैं अर्थात जब डाली दाखलता में बनी रहेगी, तभी तो फल आएंगे। बिना उसके साथ संगति, बिना संबंध के हमारे जीवन में कभी भी फल नहीं आ सकते। जीवन में फल लाना हमारे उद्देश्य की भी पूर्ति है, क्योंकि जिस माली ने बीज बोया, या पौधा लगाया है वो फल की भी आशा करता है।

केवल वे डालियां ही फल को लाती है जो पेड़ या लता के साथ जुड़ी रहती हैं। प्रभु यीशु ने यहां यह बात कही इसलिए यह और भी ध्यान देने वाली बात है। वह डाली जो दाखलता से कट चुकी है वह फल नहीं ला सकती है, शायद कुछ देर तक जीवित दिखाई दे परन्तु वह जल्दी ही सूखकर मर जाती है। निरन्तर उसके साथ जुड़े रहना ही फलदाई जीवन की कुंजी है।

सारांश

याद रखें कि शिष्यता के ये तीनों गुण अनिवार्य हैं क्योंकि ये आपस में जुड़े हुए हैं। (यूहन्ना 15:9-17) हमारे पास यह विकल्प नहीं है कि हम एक या दो को चुनें। ये तीनों परिणाम परमेश्वर के साथ प्रगतिशील संबंध में से बहते हैं। 

एक शिष्य के जीवन में आज्ञाकारिता, प्रेम और फलवंतता इसलिए दिखाई देते हैं क्योंकि वो वह एक सदा बने रहने वाले संबंध में जोड़ा गया है। इन क्षेत्रों में से किसी क्षेत्र में कमजोरी का यह मतलब है कि एक शिष्य को मसीह के साथ अपने संबंध में बढ़ने की जरूरत है, ताकि उस संबंध का प्रमाण और भी साफ साफ दिखाई दे।

क्योंकि प्रभु यीशु के शिष्य उनके पहनावे से नहीं बल्कि उनके जीवनों से पहचाने जाएंगे। आज्ञाकारिता, प्रेम, फलवंतता इन्हीं चिन्हों से दूसरों को पता चलेगा कि हम सचमुच में प्रभु यीशु के शिष्य हैं।

आपकी इस विषय में क्या राय है? थोड़ा चिंतन करने में समय बिताएं कि शिष्यता के ये चिन्ह आपके जीवन में कैसे दिखाई देते हैं? 

शालोम

2 Comments

  1. Ranjeet Singh

    आमीन, जुड़े रहना ही बेहतर संबंध का आधार है।

    Reply
  2. Shyam Kaushal

    Really, if we are disciples of christ these 3 sign should be reflected from our Life.

    Reply

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anandvishwas

Anand Vishwas

आशा है कि यहाँ पर उपलब्ध संसाधन आपकी आत्मिक उन्नति के लिए सहायक उपकरण सिद्ध होंगे। आइए साथ में उस दौड़ को पूरा करें, जिसके लिए प्रभु ने हमें बुलाया है।