स्व-धार्मिकता के बारे में बाइबल क्या कहती है? स्व-धार्मिकता(Self-righteousness) क्या होती है? (What does the Bible say about Self-righteousness?) इसके क्या नुकसान हैं? स्व-धार्मिकता से कैसे बचें? आइए इन सभी सवालों के बारे में बात करें।
Table of Contents
स्व-धार्मिकता क्या होती है?
स्व-धार्मिकता (Self-righteousness) – विशेष रूप से दूसरों के कार्यों और विश्वासों के विपरीत अपनी स्वयं की धार्मिकता के प्रति आश्वस्त मानसिकता को स्व-धार्मिकता कहा जाता है। इसे संकीर्ण मानसिकता वाला नैतिकतावादी भी कहा जाता है। स्व-धर्मी व्यक्ति अक्सर दूसरों की राय और व्यवहार के प्रति असहिष्णु (Intolerant) होते हैं। एक स्व-धर्मी व्यक्ति सोचता है कि उसकी मान्यताएँ और नैतिकताएँ बाकी सभी से बेहतर हैं। घमंड और पाखंड, स्व-धार्मिकता के दूसरे रूप हैं जिन्हें हम सभी कभी-कभी प्रदर्शित करने के दोषी हो सकते हैं।
साधारण शब्दों में कहें तो स्व-धार्मिकता एक व्यक्ति का खुद की धार्मिकता में विश्वास होना है, यह व्यक्ति अपने आप को दूसरों से ज्यादा धर्मी समझता है और समझता है कि यह व्यक्ति, हर वक्त सही है। अपने आपको धर्मी समझना और दूसरों से उत्तम समझना स्व-धार्मिकता होती है। यह ऐसा व्यक्ति होता है जिसे दूसरों की आँख में तिनका तो दिखाई देता है पर अपनी आँख का लट्ठा दिखाई नहीं देता है। (मती 7:5)
बाइबल स्व-धार्मिकता के बारे में क्या कहती है?
मसीहियों को धार्मिक जीवन जीने के लिए बुलाया जाता है। नीतिवचन 21:21 हमें बताता है: “जो कोई धार्मिकता और प्रेम का अनुसरण करता है, वह जीवन, समृद्धि और सम्मान पाता है।” फिर भी, परमेश्वर नहीं चाहता है कि हम स्व-धर्मी बनें।
बाइबल के अनुसार स्व-धार्मिकता एक ऐसा विचार है कि हम जो कुछ भी करते हैं वह हमारे लिए धार्मिकता उत्पन्न कर सकता है और शायद परमेश्वर को ग्रहण योग्य होगा। हालाँकि इस प्रकार के विचार में जो गलती है, वह परमेश्वर के वचन को पढ़ने वाला विश्वासी समझ लेता है क्योंकि हमारे पापी स्वभाव के कारण यह हम सबके लिए एक प्रलोभन है कि हम स्वयं में या स्वयं के धर्मी होने में विश्वास करें। बाइबल कहती है कि “कोई भी धर्मी नहीं हैं।” (रोमियों 3:10) बाइबल में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जहाँ लोग इस प्रकार के प्रलोभन में फंस चुके थे।
हालाँकि बाइबल में स्व-धार्मिकता को विशेष रूप से नहीं बताया गया है, लेकिन घमंड, पाखंड और आत्म-केन्द्रित होने के बारे में बहुत सी घटनाएं हैं जो स्पष्ट करती हैं कि लोगों में स्व-धार्मिकता कैसी दिखती है। स्व-धार्मिकता के बारे में विचार करने के लिए यहां कुछ पद दिए गए हैं:
यदि कोई कहे, “मैं परमेश्वर से प्रेम रखता हूँ” और अपने भाई से बैर रखे तो वह झूठा है; क्योंकि जो अपने भाई से जिसे उसने देखा है प्रेम नहीं रखता, तो वह परमेश्वर से भी जिसे उसने नहीं देखा प्रेम नहीं रख सकता। (1 यूहन्ना 4:20)
“सावधान रहो! तुम मनुष्यों को दिखाने के लिये अपने धार्मिकता के काम न करो, नहीं तो अपने स्वर्गीय पिता से कुछ भी फल न पाओगे। (मत्ती 6:1)
उसने उनसे कहा, “यशायाह ने तुम कपटियों के विषय में बहुत ठीक भविष्यद्वाणी की; जैसा लिखा है : ‘ये लोग होठों से तो मेरा आदर करते हैं, पर उनका मन मुझ से दूर रहता है। (मरकुस 7:6)
क्योंकि यदि कोई कुछ न होने पर भी अपने आप को कुछ समझता है, तो अपने आप को धोखा देता है। (गलातियों 6:3)
यीशु ने उन फरीसियों और शास्त्रियों को डांटा, जो व्यवस्था की शिक्षाओं और परम्पराओं को कठोरता से पालन करने की कोशिश कर रहे थे ताकि वे दूसरों से ज्यादा प्रसंसनीय या उत्तम ठहरें। जहाँ तक मती 23 अध्य्याय में वर्णित है, वे दिखावे के लिए प्रार्थना करते थे, उपवास करते थे, दशमांश भी देते थे और यहाँ तक कि छोटी से छोटी चीज, जीरे और सौंफ का दशमांश दिया करते थे। ये लोग मछर को तो छान लेते थे पर ऊँट निगल जाते थे। (मती 23:23-24)
यहूदी लोग दूसरों को अशुद्ध मानते थे। वे समझते थे कि वे परमेश्वर के लोग हैं। हम फरीसी और चुंगी लेने वाले के दृष्टान्त में भी देख सकते हैं, जो यीशु मसीह को यह गंभीर समस्या को समझाने के लिए देना पड़ा। आमतौर पर फरीसी सोचते थे कि हम धर्मी हैं और दूसरों को तुच्छ समझते थे। (लूका 18:9-14) पर परमेश्वर तो मन को जाँचता है। (नीतिवचन 21:2)
ऐसा ही उदाहरण यूहन्ना 8 अध्याय में दर्ज़ है जहाँ लोगों ने यीशु के पास एक व्यभिचार में पकड़ी हुई स्त्री को लाया था ताकि शास्त्री और फरीसी यीशु पर दोष लगाने के लिए कुछ ढूंढ सकें। उन्होंने उसे बीच में खड़े करके यीशु से कहा, यह स्त्री व्यभिचार में पकड़ी गई है और मूसा की व्यवस्था हमें आज्ञा देती है कि ऐसी स्त्रियों पर पत्थरवाह करें। अतः आप बताएं कि इस विषय में क्या करें? आगे आपको मालूम है कि क्या हुआ।
यीशु ने उनसे कहा कि तुम में से जो कोई निष्पाप हो, पहला पत्थर वही मारे। यह सुन कर एक-एक करके वहां से निकल पड़े क्योंकि वे स्वयं अपने बारे में जानते थे कि वे कितने दोषरहित हैं। (यूहन्ना 8:1-11) पर बाहर तो वे ऐसा दिखावा कर रहे थे जैसे कि उन्होंने कभी कोई पाप ही नहीं किया होगा। दाग चाहे छोटा या बड़ा हो, दाग तो दाग ही है और यहाँ हम यह भी नहीं कह सकते हैं कि “दाग तो अच्छे हैं।” इसी प्रकार पाप चाहे छोटा या बड़ा हो, पाप तो पाप ही है।
पौलुस ने भी स्व-धार्मिकता के रवैये के बारे में यहूदियों को डांटा क्योंकि वे खतने में विश्वास करते हुए स्व-धार्मिकता में विश्वास करते थे। (रोमियों 2:17–24) पौलुस ने उन्हें परमेश्वर के अनुग्रह के बारे में बताया कि किस प्रकार परमेश्वर सभी अन्यजातियों को भी धर्मी ठहराता है। वह अध्याय 10 में इस विषय पर और अधिक, कहते हुए लिखता है कि यहूदियों ने अपनी धार्मिकता के आधार पर परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने का प्रयास किया था और, परमेश्वर की सच्ची धार्मिकता के प्रति अज्ञानता को प्रदर्शित किया था। (रोमियों 10:3) उसका निष्कर्ष यह है कि हर एक विश्वास करने वालों के लिए, धार्मिकता के निमित मसीह व्यवस्था का अन्त है। (रोमियों 10:4)
गलातियों की कलीसिया को पौलुस ने अपने पत्र के द्वारा इसी विषय को सम्बोधित किया है। यहाँ विश्वासियों को व्यव्स्थापालक यहूदी मसीहियों के द्वारा सिखाया जा रहा था कि इन विश्वासियों को परमेश्वर के लिए स्वीकार्य होने के लिए विशेष रूप से खतना की आवश्यकता है। तभी पौलुस को कठोरता के साथ बताना पड़ा कि यह एक और ही प्रकार का सुसमाचार है और जो लोग इसका समर्थन करते हैं, वे “श्रापित” हैं। (गलातियों 1:8–9) पौलुस अधिक स्पष्ट रूप से बताता है कि, यदि धार्मिकता अपने कार्यों से आ सकती है, तो यीशु का क्रूस पर मरना व्यर्थ होता। (गलातियों 2:21) यदि ऐसी व्यवस्था दी जाती जो जीवन दे सकती तो सचमुच धार्मिकता “व्यवस्था के द्वारा” होती। (गलातियों 3:21) गलातियों के विश्वासियों के बारे में पौलुस का निष्कर्ष था कि वे आत्मा की रीति पर आरम्भ करके, अब शरीर से सिद्ध होने की मूर्खता कर रहे थे। (गलातियों 3:1-3)
जिस दुनियां में हम रहते हैं उसमें मसीही होने के नाते, कई बार प्रभु यीशु मसीह के दृष्टिकोण और मार्ग का अनुसरण करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। दुनियां उस परमेश्वर की आराधना और स्तुति करने के बजाय, जिसने हमें सब कुछ दिया है, जिसमें उसका इकलौता पुत्र भी शामिल है; आत्म-संतुष्टि और अपनी जरूरतों को पहले रखने पर अधिक केंद्रित होती जा रही है।
लेकिन एक मसीही होने के नाते हम कभी-कभी स्व-धार्मिकता के जाल में फंस सकते हैं। कभी-कभी हम मानते हैं कि गलतियों और बुरे विकल्पों को चुनने में हम अपने आस-पास के लोगों की तरह नहीं हैं।
स्व-धर्मी होना स्वयं के प्रति अति-आत्मविश्वास है, यह विश्वास करना है कि कोई भी आपसे आगे नहीं निकल सकता। (कुछ लोगों का मानना है कि वे हर चीज में उत्कृष्ट हैं।) यह खेल में, राजनीति में, आदर्श कर्मचारी या सबसे अच्छे माता-पिता या बच्चे होने में भी हो सकता है।
हमें अपने आपको यह याद दिलाने की ज़रूरत है कि परमेश्वर के लोग भी जीवन में पीड़ा और भ्रम से अछूते नहीं हैं। इसके अलावा, अय्यूब की पुस्तक मसीहियों को अपना गुस्सा निकालने, रोने, शोक मनाने, क्रोधित होने और उदास होने की अनुमति देती है। अय्यूब की पुस्तक हमें याद दिलाती है कि हम आध्यात्मिक, शारीरिक और भावनात्मक प्राणी हैं।
अय्यूब एक ईमानदार व्यक्ति था, जो परमेश्वर का भय मानता था और बुराई से दूर रहता था। परमेश्वर ने अय्यूब को बुद्धि और समृद्धि दी थी। (अय्यूब 1:1-5) लेकिन इनमें से सब कुछ तब बदल गया जब दोष लगाने वाले शैतान ने अय्यूब पर यह दोष लगाया गया कि वह परमेश्वर की दी हुई आशीषों के कारण ही परमेश्वर की आराधना करता है। (अय्यूब 1:9-10)
कुछ अर्थों में, परमेश्वर ने अय्यूब की सराहना की, जब उसने शैतान को गलत साबित करने के लिए अय्यूब को चुना। (अय्यूब 1:8) परमेश्वर ने शैतान को अय्यूब के जीवन से आशीषों को छीनने की अनुमति दी। पशुधन, संपत्ति, नौकर, बच्चे और उसका अपना स्वास्थ्य, सभी कुछ ही समय में अय्यूब के जीवन से बाहर हो गए।
धन खोने का दुःख, अपने बच्चों को खोने की पीड़ा की तुलना में कुछ भी नहीं था। पर वह खुद बीमारी से ग्रसित हो गया, जिससे उसका दुःख और भी असहनीय हो गया। लेकिन अय्यूब अपनी ईमानदारी और परमेश्वर में अपने विश्वास पर कायम रहा। (अय्यूब 1:20-22, 2:10)
हालाँकि, अय्यूब चुपचाप पीड़ित नहीं था। उसने आत्मग्लानि और क्रोध प्रकट किया। वह उदास था और चाहता था कि मृत्यु उसका दर्द ख़त्म कर दे। उसने ऐसे प्रश्न पूछे जिनका उत्तर केवल परमेश्वर ही दे सकता था, परन्तु परमेश्वर ने कोई उत्तर नहीं दिया। इसलिये अय्यूब के मित्र, जो उसे दिलासा देने के लिये आये थे, उसके विरूद्ध हो गये।
हम अय्यूब के तीसरे मित्र, नामाती सोपर, को देख सकते हैं। जो कि अय्यूब 11, 20, 24, 27 में दर्ज हैं। यहाँ हम स्व-धर्मी सोपर की गलतियों से कुछ सीख सकते हैं। सोपर ने जो कहा वह वास्तव में सच था, लेकिन उसकी सच्चाइयाँ अय्यूब के लिए अप्रासंगिक थीं। सोपर का कहना है कि यदि लोगों को उनके पापों के बराबर सज़ा मिले, तो वे मर जायेंगे। फिर वह कहता है कि लोग यह नहीं समझ सकते कि परमेश्वर कैसे कार्य करता है। और अंत में, सोपर का कहना है कि जो लोग दुख उठा रहे हैं उन्हें परमेश्वर की तलाश करनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर ही एकमात्र हैं जो आशीषों को बहाल कर सकते हैं।
सोपर ने जो कुछ कहा वह सब सत्य है, परन्तु उन्हें कहने की आवश्यकता नहीं है। अय्यूब की पीड़ा उसके पाप के कारण नहीं थी। बल्कि, अय्यूब की पीड़ा उसकी विश्वासयोग्यता के कारण थी, जिसकी शैतान द्वारा परीक्षा की जा रही थी। अय्यूब पहले से ही जानता था कि परमेश्वर के तरीके एक रहस्य हैं। लेकिन फिर भी अय्यूब परमेश्वर को ढूंढ़ता रहा, परन्तु परमेश्वर चुप रहा।
न केवल सोपर की सलाह अय्यूब के लिए अप्रासंगिक थी, बल्कि सोफर का रवैया भी स्व-धार्मिकता का था। स्व-धार्मिकता स्वयं को सही घोषित करना है। स्व-धार्मिक व्यक्ति को दूसरों को यह बताने में आनंद आता है कि वे कहां गलत हैं। क्योंकि ऐसे लोग ये सोचते हैं कि वे सब कुछ जानते हैं।
स्व-धार्मिकता हम सभी में कुछ हद तक पाई जाती है। और जिस हद तक हम स्व-धर्मी होते हैं, हम अपने लिए और दूसरों के लिए समस्याएँ पैदा करते हैं। स्व-धार्मिकता एक निर्णयात्मक और आलोचनात्मक भावना की ओर ले जाती है। आप अगर एक स्व-धर्मी बॉस, सहकर्मी, जीवनसाथी या माता-पिता के पास जाएंगे तो जो कुछ भी आप सुनोगे वो सब कुछ आपकी गलतियों की सूचि होगी।
स्व-धर्मी दूसरों की आलोचना करता है और दूसरों को नियंत्रित करने और बदलने की कोशिश करता है। स्व-धर्मी को दूसरों को क्षमा करने और दूसरों से क्षमा माँगने में कठिनाई होती है। स्व-धर्मी व्यक्ति विनम्र व्यवहार कर सकता है, लेकिन वह दूसरों से श्रेष्ठ महसूस करता है और उसे परमेश्वर की कोई आवश्यकता नहीं दिखती।
यदि आप अपने अंदर स्व-धार्मिकता को पहचानते हैं, तो आप अच्छी संगति में हैं। परमेश्वर ने हमारे लिए बाइबल में कई उदाहरण दर्ज़ किए हैं। अय्यूब को सोपर की सलाह हमें संकेत देती है कि हमारे अंदर स्व-धार्मिकता क्या पैदा करती है, और स्व-धार्मिकता को दूर करने के लिए हमें क्या करने की ज़रूरत है।
जब हम अपना बचाव करते हैं तो हम स्व-धर्मी हो जाते हैं। (अय्यूब 11:1-6) इन पदों में, सोपर अय्यूब से कहता है कि उसकी पीड़ा उसके पाप के कारण है, लेकिन सोपर अय्यूब के जीवन में विशिष्ट पापों की ओर इशारा नहीं करता है। तो सोपर ऐसा दावा क्यों करता है? क्योंकि सोपर अपना बचाव करने की कोशिश कर रहा था।
जब हम अपनी सफलता का बचाव करते हैं तो हम स्व-धर्मी हो जाते हैं। (अय्यूब 11:13-20) सोपर ने संभवतः अय्यूब की ओर देखा, और उसने स्वयं की ओर देखा। उसने देखा कि अय्यूब की वर्तमान परिस्थिति की तुलना में वह जीवन में सफल था।
जो लोग सफल हैं वे स्व-धर्मी हो सकते हैं। अच्छे ग्रेड के साथ स्नातक होना, अच्छी नौकरी करना और अच्छा भाग्य होना, अच्छा परिवार होना, अच्छा घर होना इत्यादि। अगर इसे परमेश्वर के अनुग्रह के रूप में नहीं समझा जाता है, तो इसे जीवन में सभी सही कदम उठाने के परिणाम के रूप में समझा जा सकता है। और आप सफलता के अपने तरीकों का बचाव करना शुरू कर देंगे, जबकि सच्ची सफलता को, जो कि परमेश्वर के साथ एक अनंत संबंध है, को नजरअंदाज कर देंगे।
हमारी स्व-धार्मिकता हमारे लिए खतरनाक है। जैसा कि हम लूका 18 अध्याय में दो व्यक्तियों की प्रार्थना को देखते हैं। हमें उस चुंगी लेने वाले के जैसे प्रार्थना करने की आवश्यकता है। (लूका 18:9-14)
परमेश्वर चाहता है कि हमारा रवैया चुंगी लेने वाले जैसा हो, फरीसी जैसा नहीं। जब हम परमेश्वर के सामने आते हैं, तो यह बाइबल के बारे में अपना ज्ञान दिखाने या हमारे जीवन में प्राप्त महान कार्यों के बारे में बात करने का समय नहीं है। जब हम परमेश्वर के सामने आते हैं, तो उसे चुंगी लेने वाले की तरह विनम्र और ईमानदार होने की आवश्यकता होती है।
स्व-धार्मिकता के क्या नुकसान हो सकते हैं?
स्व-धार्मिकता हमें परमेश्वर को देखने से रोकती है।
उदाहरण के लिए मरकुस 3:1-6 पढ़ें। यीशु आराधनालय में गया। वहां एक मनुष्य था जिसका दाहिना हाथ सूख गया था। वहां शास्त्री और फरीसी यीशु पर दोष ढूंढने की फ़िराक में थे कि यीशु इस व्यक्ति को सब्त के दिन चंगा करता है कि नहीं। यहां परमेश्वर का पुत्र उनके सामने खड़ा है जो परमेश्वर की सुंदरता, हृदय और शक्ति को प्रदर्शित कर रहा है और फिर भी सभी फरीसियों का इरादा उस पर आरोप लगाने का एक कारण ढूंढना था। (मरकुस 3:1-2) तो हम कह सकते हैं कि स्व-धार्मिकता हमें परमेश्वर को देखने से रोकती है।
स्व-धार्मिकता हमें लोगों से प्यार करने से रोकती है।
यीशु ने उस सूखे हाथ वाले मनुष्य को बुलाया और फरीसियों से पूछा, क्या सब्त के दिन भला करना उचित है या बुरा करना, प्राण को बचाना या मारना? परन्तु ये सुन के उन्होंने जवाब नहीं दिया। (मरकुस 3:3-4)
इस आदमी का दाहिना हाथ सूख गया था। शायद उसे शरीर से पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाया होगा। उसकी सारी शक्ति समाप्त हो गई थी। जब तक वह यीशु से नहीं मिला, तब तक इसका कोई उपाय नहीं था। अब क्या यीशु को उस व्यक्ति को नजरंदाज़ करना चाहिए था ताकि शास्त्री और फरीसी प्रसन्न हो जाएँ? कदापि नहीं।
यीशु, शास्त्रियों और फरीसियों के मन की कठोरता से उदास हुआ। क्योंकि वो सब्त के दिन अपने पालतू जानवर को तो बचाते थे (यदि कोई गड़हे में गिर जाए तो) पर बाहर किसी के साथ मनुष्य की मदद करने से बचते थे। यीशु ने उन्हें याद दिलाया कि मनुष्य का मूल्य जानवरों से अधिक है, इसलिए भलाई करना उचित है। (मती 12:9-14) यह बहुत दुखद बात है क्योंकि ये लोग अपनी परंपरा के प्रति इतने उत्साही थे कि उन्होंने उस व्यक्ति की बिल्कुल भी परवाह नहीं की, जो कई वर्षों से इस बीमारी से पीड़ित था। केवल वह और परमेश्वर ही उस दर्द को समझ सके जिससे वह इतने वर्षों में गुजरा था।
क्या फरीसियों का यह रवैया हमारे जीवन में भी आम है? हाँ। ऐसा तब होता है जब हम अपने भाइयों और बहनों को उनकी आत्मिक यात्रा में विफलताओं के आधार पर आंकने में बहुत जल्दबाजी करते हैं, और हम उनके पाप पर शोक मनाने के बजाय उनके संघर्षों पर निर्णय देते हैं। सवाल यह है कि क्या हम उनके संघर्षों से खुश होते हैं या इससे हमारा दिल दुखी होता है?
स्व-धार्मिकता का अर्थ है केवल अपने विश्वास के बारे में चिंतित होना और आप दूसरे से बेहतर कैसे दिख सकते हैं। जब तक आप नैतिक रूप से संघर्षरत भाई से बेहतर जगह पर हैं, आप खुश हैं। स्व-धार्मिकता अपने मूल में स्वार्थी है! इसके कारण हम अपनी देवड़ी पर के जरुरतमंद व्यक्ति को भी नज़रंदाज़ कर सकते हैं। (लूका 16:19-31)
इसलिए अपने आप से यह पूछना ठीक होगा कि हम अपने भाइयों और बहनों से कितना प्यार करते रहे हैं? अक्सर यह पूछना हमारी स्व-धार्मिकता के स्तर का एक अच्छा मूल्यांकन कर सकता है।
स्व-धार्मिकता हमें अपने पापों को जानने से रोकती है।
यीशु, फरीसियों के मन की कठोरता से उदास हुआ। और उस मनुष्य को हाथ बढ़ाने के लिए कहा, “अपना हाथ बढ़ा” उसने अपना हाथ बढ़ाया और उसका हाथ ठीक हो गया। तब फरीसी हेरोदियों के साथ यीशु के विरोध में योजनाएं बनाने लगे कि उसे किस प्रकार नष्ट करें। (मरकुस 3:5-6)
इन पदों में हम यीशु को बहुत सारी भावनाएँ व्यक्त करते हुए देखते हैं। जब वह फरीसियों के हृदय की कठोरता देखता है तो दुःख मिश्रित क्रोध होता है! उन्होंने शायद सोचा कि वे सब सही थे। उन्होंने सोचा कि उनमें परमेश्वर के प्रति उत्साह है, लेकिन यीशु ने देखा कि उनके दिल कितने ठंडे, कितने जिद्दी और कितने कठोर हो गए हैं। यीशु का उस व्यक्ति के प्रति दया दिखाना और उसका हाथ बहाल करना, उनके लिए अद्भुत और सुंदर नहीं था।
उन्होंने बाहर जाकर हेरोदी राजवंश के समर्थकों से मुलाकात की, जो पहले उनके मित्र नहीं थे और यीशु को नष्ट करने की साजिश रची। क्या आप इस बात पर विश्वास करेंगे? उस समय के सबसे धार्मिक लोग अब खुद को हत्यारा साबित कर रहे हैं क्योंकि वे नहीं जानते थे कि उनके दिल कितने पापी हो गए थे। उनकी स्व-धार्मिकता ने उन्हें यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि वे सही थे जबकि वास्तव में वे पूरी तरह से गलत थे।
यही स्व-धार्मिकता के बारे में बात है। इससे आपको ऐसा महसूस होगा जैसे आपके अलावा पूरी दुनियां में कोई समस्या है। मैं अब जानता हूँ कि यह सब परमेश्वर की कृपा है क्योंकि स्व-धार्मिकता वास्तव में किसी व्यक्ति के जीवन को बर्बाद कर सकती है, उन्हें परमेश्वर और दूसरों के प्रति कड़वा बना सकती है, बिना यह जाने कि हमारा दिल कितना कड़वा हो गया है।
अब जब हम जान चुके हैं कि स्व-धार्मिकता के खतरे क्या हैं तो हमें कैसे प्रतिक्रिया देनी चाहिए? हम स्व-धार्मिकता से कैसे बच सकते हैं? ह्रदय की इस दशा को बदलने के लिए हम क्या कर सकते हैं?
स्व-धार्मिकता से कैसे बचें?
स्वीकार करें कि हमने पाप किया है।
यदि हम कहें कि हम में कुछ भी पाप नहीं, तो अपने आप को धोखा देते हैं, और हम में सत्य नहीं। यदि हम अपने पापों को मान लें, तो वह हमारे पापों को क्षमा करने और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य और धर्मी है। (1 यूहन्ना 1:8, 9)
यह आपको काफी बुनियादी लग सकता है लेकिन सच्चाई यह है कि कभी-कभी हमारे लिए यह कहना आसान नहीं होता कि हम अभ्यासी पापी हैं। हमें इसे नम्रतापूर्ण स्वीकार करना होगा। कभी-कभी लोग कहते हैं कि वे यह कहने में सहज नहीं हैं कि वे अभी भी पापी हैं, लेकिन वचन इसके बारे में अलग तरह से बात करता है।
1 यूहन्ना विश्वासियों के लिए लिखा गया था, अविश्वासियों के लिए नहीं। और यहाँ उपदेश परमेश्वर के सामने यह स्वीकार करने का है कि हम पापी हैं। और यदि हम अंगीकार करें… तो वह हमारे पापों को क्षमा करने और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य और धर्मी है।
स्वयं पर निर्भरता त्याग दें।
कुछ लोगों को जो अपनी धार्मिकता पर भरोसा रखते थे और बाकी सभी को तुच्छ समझते थे, यीशु ने यह दृष्टांत सुनाया: “दो आदमी प्रार्थना करने के लिए मंदिर में गए, एक फरीसी और दूसरा चुंगी लेने वाला। फरीसी खड़ा हुआ और अपने बारे में प्रार्थना की: “हे परमेश्वर, मैं आपको धन्यवाद देता हूँ कि मैं अन्य लोगों की तरह नहीं हूँ; अन्धेर करने वाला, अन्यायी, व्यभिचारी या यहां तक कि इस चुंगी लेने वाले की तरह भी नहीं हूँ। मैं सप्ताह में दो बार उपवास करता हूँ और अपनी कमाई का दसवां हिस्सा देता हूँ।”
उधर चुंगी लेने वाले ने दूर खड़े होकर स्वर्ग की ओर आँखे उठाना भी न चाहा बल्कि छाती पीट-पीटकर कहा कि “हे परमेश्वर, मुझ पापी पर दया कर” यीशु ने आगे कहा कि यही दूसरा व्यक्ति धर्मी ठहराया गया क्योंकि जो अपने आपको बड़ा बनाएगा वह छोटा किया जाएगा और जो अपने आपको छोटा बनाएगा वह बड़ा किया जाएगा। (लूका 18:9-14)
इस दृष्टान्त में उस फरीसी ने अपने कार्यों के आधार पर यह समझ लिया था कि परमेश्वर ने उसे ग्रहण कर लिया है जबकि चुंगी लेने वाले ने यह स्वीकार किया कि उसके पास स्वयं में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे परमेश्वर उसे स्वीकार कर सके। सुसमाचारों में हम देखते हैं कि यीशु निरन्तर इन फरीसियों से टकराता है और सच्ची धार्मिकता के बारे में बात करता है।
यीशु ने अपने शिष्यों को स्व-धार्मिकता के खतरों के बारे में चेतावनी देने के लिए बहुत अधिक समय और ऊर्जा भी खर्च की। स्व-धार्मिकता हमें परमेश्वर और एक-दूसरे से अलग करती है। स्वयं को स्व-धार्मिकता से अलग करने के लिए, हमें स्वयं का बचाव, अपनी सफलताओं का बचाव करना छोड़ना होगा। और जो कार्य मसीह ने हमारी धार्मिकता के लिए किया उस पर भरोसा करना होगा।
मसीह के कार्य पर भरोसा रखें।
उस ने हमारे लिये उसे पापी बना दिया, जो पाप से अज्ञात था, कि हम उस में होकर परमेश्वर की धार्मिकता बन जाएं। (2 कुरिन्थियों 5:21)
सुसमाचार का अद्भुत सत्य केवल तभी पूरा नहीं होता जब हम समझते हैं कि हम पापी हैं और खुद पर निर्भरता छोड़ देते हैं। यह तब पूरा होता है जब हम क्रूस पर हुए महान आदान-प्रदान पर भरोसा करते हैं। यीशु मसीह ने प्रेमपूर्वक उस मृत्यु को सहन किया जिसके हम हकदार थे ताकि उस पर विश्वास करके हम उसकी धार्मिकता प्राप्त कर सकें!
निष्कर्ष
आज मसीही विश्वासी भी इस स्वभाव से जूझते रहते हैं। अपने उद्धार की प्राप्ति के लिए कुछ करने का प्रयास करना हमारे पापी स्वभाव में है। अनुग्रह के द्वारा आज़ादी, जिसके लिए हमने कुछ भी नहीं किया, वह यीशु के लहू द्वारा हमारे लिए खरीदी गई थी। इसलिए उस अनुग्रह का समझना या सराहना करना हमारे घमंडी मनों के लिए मुश्किल है।
जो लोग यीशु के बलिदान को स्वीकार करते हैं उनके पाप क्षमा कर दिए जाते हैं। हालाँकि बहुत बार, हम भूल जाते हैं कि हमें भी एक समय एक उद्धारकर्ता की आवश्यकता थी। स्वयं की एक दूसरे के साथ तुलना करना और स्वयं को दूसरों से उत्तम समझना, घमंड और पाखंड को दर्शाता है। हमें यह समझना होगा कि हम एक पवित्र परमेश्वर के मापदण्डों को पूरा नहीं सकते हैं। पर फिर भी मसीह में हम सच्ची धार्मिकता को जान सकते हैं। और मसीह में अनुग्रह के माध्यम से हम, पापों की क्षमा को जान सकते हैं। क्योंकि उसने हमारी सजा का भुगतान किया, ताकि हम उसमें होकर परमेश्वर की धार्मिकता बन जाएं। (2 कुरिन्थियों 5:21)
केवल क्रूस ही हमारे मनों में पाई जाने वाली स्व-धार्मिकता की प्रवृत्ति को निरन्तर पराजित करता है। स्व-धार्मिकता विनाशकारी है, जबकि विनम्रता का जीवन जो एक अच्छे और पवित्र परमेश्वर की धार्मिकता पर निर्भर करता है, परमेश्वर के साथ हमारे रिश्ते को फलवन्त करेगा।
शालोम