अंत तक विश्वासयोग्य बने रहना क्यों आवश्यक है?

अय्यूब के जीवन से सबक (Remaining Faithful Until the End)

अंत तक विश्वासयोग्य बने रहना क्यों आवश्यक है? (Remaining Faithful Until the End) इन दिनों हम निरंतर यह सीख रहे हैं कि विरोधी दुनियां में विश्वासयोग्य बने रहकर हम कैसे जीवन जी सकते हैं। हां हम ऐसी दुनियां में रहते हैं जो बुराई और दुख से भरी हुई है।

इसी बीच हम परमेश्वर के प्रेम को भी महसूस कर सकते हैं। और हमने यह भी देखा कि क्यों परमेश्वर ने बुराई को अनुमति दी है? इसलिए ताकि हम जान लें कि बुराई कितनी खतरनाक है और हमें इसे अपने जीवन से दूर करना है।

अय्यूब की विश्वासयोग्यता।

आज हम अय्यूब के जीवन से सीखेंगे कि हमें अपने जीवन में अंत तक विश्वासयोग्य बने रहना है

अय्यूब की पुस्तक हमें परमेश्वर के लोगों के प्रति शैतान का रवैया और उन्हें पीड़ित करने, उन्हें पीड़ित देखने की उसकी दृढ़ता के बारे में गहरी जानकारी देती है। पुराने नियम की इस पुस्तक का अध्ययन करने से हम शैतान के उद्देश्यों के बारे में बहुत कुछ जान सकते हैं, साथ ही यह भी हम जान सकते हैं कि परमेश्वर सुरक्षा देता है, परमेश्वर राज्य करता है। इस पुस्तक के अध्ययन से हमें यह भी मालूम होता है कि परमेश्वर विश्वासयोग्य लोगों की तारीफ भी करता है। वह अपने लोगों की विश्वास योग्यता को जानता है।

अंत तक विश्वासयोग्य बने रहना क्यों आवश्यक है? (Remain Faithful Until the End) अय्यूब की विश्वासयोग्यता
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इस पुस्तक के अध्ययन से हम यह भी समझ सकते हैं कि कभी-कभी हम उन कष्टों का भी अनुभव करते हैं, जो कि हमारे जीवन में कभी आने ही नहीं चाहिए, क्योंकि हमने कुछ गलत किया ही नहीं होता है। जब हमारे जीवन में हम एक भला जीवन जीते हैं, लोगों की भलाई करते हैं, सबका भला सोचते हैं तो उस वक्त भी हमें कष्ट सहने के लिए तैयार रहना चाहिए।

क्योंकि परमेश्वर का वचन स्पष्ट कहता है कि जो भी भक्ति के साथ जीवन बिताना चाहते हैं वे सब सताए जाएंगे। इसके बारे में हमने पिछले भाग में बात कर दिया था कि क्यों हमारे जीवन में कष्ट आते हैं?

बाइबल (पवित्रशास्त्र) के गई विद्वानों का मानना है कि अय्यूब की पुस्तक पुराने नियम की सबसे प्रथम पुस्तकों में से एक है। यह अय्यूब नामक एक व्यक्ति की कहानी बताती है, जो यहोवा परमेश्वर में एक विश्वासी था। ऊज नामक देश में रहता था, वह बहुत धर्मी था, उसका एक बड़ा परिवार था। कहानी की पृष्ठभूमि अध्याय 1 और 2 में दी गई है।

अध्याय 1 में जब हम पढ़ते हैं तो हमें मालूम होता है की शैतान ने अय्यूब पर यह आरोप लगाया कि अय्यूब वास्तव में परमेश्वर से इस कारण प्रेम और उसकी आराधना नहीं करता कि वह परमेश्वर है, बल्कि परमेश्वर से मिलने वाले लाभों के कारण वह ऐसा करता है।

हम इस अध्याय में पढ़ते हैं कि परमेश्वर ने उसे बहुत आशीषित किया था, उस को सुरक्षा प्रदान किया था। आश्चर्य की बात यह है कि शैतान स्वयं इस बात का अंगीकार करता है, हो सकता है कि उसने पहले भी अय्यूब पर हमला करने की कोशिश की हो।

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अध्याय के अगले भाग में हम देखते हैं कि शैतान को अय्यूब के जीवन में पीड़ा देने की अनुमति मिल जाती है। अयूब को अपनी संपत्ति, अपना धन का नुकसान उठाना पड़ा, उसके बच्चे मर गए, वह खुद पूरे शरीर पर फोड़ों से पीड़ित हो गया, ना केवल अय्यूब पूरी तरह से दुखी था बल्कि उसकी पत्नी ने भी उसका समर्थन करना बंद कर दिया था।

उसने उसे ताना मारा, क्या तू अभी भी अपनी खराई पर बना है? परमेश्वर की निंदा कर और चाहे मर जाए तो मर जा। परमेश्वर का वचन हमें यहां पर गवाही देता है कि इस पूरे समय में अय्यूब ने परमेश्वर को दोष नहीं दिया बल्कि उसकी आराधना की। (अय्यूब 1:20-22) फिर भी अपने गहरे दुख और पीड़ा में उसने अपने जन्मदिवस को धिक्कारा और अपने संकटों पर विलाप किया। (अय्यूब 3:1-24)

हालांकि उसने एक चिंतापूर्ण प्रश्न भी उठाया मनुष्य को क्यों जन्म लेना चाहिए यदि उसके हिस्से में केवल दुख ही है। (अयूब 3:20-22)

अनुमान गलत हो सकते हैं।

हालांकि उसकी दुखद स्थिति को सुनकर उसके तीन दोस्त भी उसे दिलासा देने को आए। जबकि उनके इरादे नेक थे, पर उनकी बातों ने केवल उसके विरोध में ही काम किया। समस्या यह थी कि अय्यूब सच में निर्दोष था, लेकिन उसके तीन दोस्त यह सोच रहे थे कि अय्यूब ने जरूर कुछ पाप किया होगा, जिसके कारण परमेश्वर ने उसको दंडित किया है।

जी हां, बहुत से लोग इस प्रकार के मत को मानने वाले हैं कि यदि आपके जीवन में मुश्किलें हैं तो हर मुश्किल के पीछे आपके कर्म है या आपके पाप हैं। पर अय्यूब का मामला इससे बिल्कुल भिन्न था। अय्यूब के दोस्त भी उसको नहीं समझ पाए। इस प्रकार के मत को मानने वाले लोग यह भी समझते हैं कि यदि कोई व्यक्ति धार्मिकता से जीता है तो परमेश्वर उसे आशीष देगा, लेकिन अगर कोई पाप करता है तो परमेश्वर उसे दंड देगा।

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जबकि अय्यूब के दोस्त गलत थे क्योंकि उसने इस पीड़ा के योग्य कुछ भी गलत नहीं किया था जैसे-जैसे उनकी बातचीत आगे बढ़ती गई, हम पाते हैं कि परमेश्वर के प्रति अपने दृष्टिकोण के साथ अय्यूब संघर्ष करता है। उसने दृढ़ता से यह तर्क दिया कि वह निर्दोष है जो वाकई में सच है।

लेकिन उसने महसूस किया कि परमेश्वर उसके साथ एक दुश्मन के समान व्यवहार कर रहा था इसलिए परमेश्वर को उसे स्पष्टीकरण देने की जरूरत है। अय्यूब ने यह भी मांग की कि परमेश्वर उसे उत्तर दे। (अय्यूब 31:35-37)

खैर, अय्यूब के जीवन में जो कशमकश चल रही थी वह तो केवल अय्यूब ही जानता था। कई बार जब हम भी इन गलियों से गुजरते हैं या यूं कहें इन समस्याओं से गुजरते हैं, जिसके योग्य हमने कोई गलती नहीं की है, तो हमारे पास भी सवाल उठते हैं कि हे परमेश्वर क्यों? आप ऐसा क्यों कर रहे हो हमारे साथ? आप कहां है प्रभु?

अय्यूब की कहानी में जब हम आगे बढ़ते हैं तो पाते हैं कि उसका एक और दोस्त आता है जो अय्यूब को यह समझने में मदद करने की कोशिश करता है कि अय्यूब का परमेश्वर के प्रति रवैया गलत है। एलीहू ने बताया कि अय्यूब को परमेश्वर से स्पष्टीकरण की मांग करने का कोई अधिकार नहीं है। उसने पूछा तू उससे क्यों झगड़ता है कि वह अपने किसी बात का लेखा नहीं देता? (अय्यूब 33:13)

क्या अय्यूब सच में चाहता था कि परमेश्वर उसके साथ योग्य व्यवहार करे? यदि परमेश्वर ऐसा करता तो अय्यूब पूरी तरह से तबाह हो जाता।

इसके अलावा, अय्यूब को इस बात का भरोसा करने की आवश्यकता थी कि परमेश्वर कभी किसी गलत काम का दोषी नहीं ठहर सकता। एलिहू ने उसको याद दिलाया निसंदेह परमेश्वर दुष्टता नहीं करता और न सर्वशक्तिमान अन्याय करता है। (अय्यूब 34:12) अय्यूब को यह स्वीकार करने की आवश्यकता थी कि वह परमेश्वर और उसके कार्य करने के तरीकों को समझने में असमर्थ है।

एलीहू ने अय्यूब को याद दिलाया कि परमेश्वर, अय्यूब की समझने की क्षमता से परे है, देख परमेश्वर महान और हमारे ज्ञान से कहीं बड़ा हैं उसके वर्ष की गिनती अनंत है। (अय्यूब 36:26) क्योंकि परमेश्वर की बुद्धि, ज्ञान और सामर्थ्य अय्यूब के समझ से बाहर है। इसलिए अय्यूब को यह भरोसा करना चाहिए था कि परमेश्वर पर्याप्त बुद्धिमानी से सबसे उत्तम मार्ग का चुनाव करेगा, भले ही इसका अर्थ यह हो कि अय्यूब इस प्रक्रिया में पीड़ित हो।

अंत में एलीहू ने निष्कर्ष दिया कि सर्वशक्तिमान जो अति सामर्थी है और जिसका भेद हम पा नहीं सकते, वह न्याय और पूर्ण धर्म को छोड़ अत्याचार नहीं कर सकता। इसी कारण सज्जन उसका भय मानते हैं और जो अपनी दृष्टि में बुद्धिमान है उन पर वह दृष्टि नहीं करता। (अयूब 37:23-24) 

अपनी दृष्टि में बुद्धिमान का अर्थ है जो अपने स्वयं के अनुमान से बुद्धिमान है।

दुःख का उद्देश्य।

एलीहू ने दुख पर अय्यूब के तीनों दोस्तों से पूरी तरह अलग दृष्टिकोण पेश किया कि हमारे जीवन में दुखों की वजह हमेशा पाप नहीं होता है। कई बार इसका उद्देश्य परमेश्वर के करीब लाना होता है हमें यह समझना जरूरी है कि हमारे जीवन के हर एक क्षेत्र परमेश्वर के नियंत्रण में है।

अय्यूब कि पुस्तक के 38 से 41 अध्यायों में हम अंततः परमेश्वर से सुनते हैं। जब परमेश्वर ने बोलना शुरू किया। तब उस दौरान उसने सीधे अय्यूब के दुख को संबोधित नहीं किया और न ही अपने न्याय पर उठाए गए अय्यूब के सवालों का जवाब दिया।

इसके बजाय परमेश्वर ने अय्यूब के विचार के लिए कई अद्भुत चीजों की ओर उसका ध्यान लगाया, जो उसने अपने सृष्टि में की थी, यहां तक कि उसके बनाए गए असाधारण प्राणी भी। इससे शक्तिशाली रूप से यह प्रकट होता है कि परमेश्वर की सामर्थ्य और ज्ञान असीम रूप से अय्यूब के परे हैं।

परमेश्वर को अय्यूब को उसकी पीड़ा के लिए स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता नहीं थी। लेकिन अय्यूब परमेश्वर के बारे में जो कुछ भी जानता था उसके आधार पर उसे परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए था। हम भी परमेश्वर पर भरोसा कर सकते हैं कि वह हमेशा भला करेगा। हम जिस योग्य हैं उसके अनुसार व्यवहार ना करते हुए वह हम पर दया करेगा अगर उसके ऐसा करने में हमें दुख भी मिले तो भी हम परमेश्वर पर भरोसा रख सकते हैं कि अंत में यह हमारी भलाई के लिए ही होगा। (रोमियो 8:28)

अंतिम अध्याय में परमेश्वर के प्रति अपने दोषपूर्ण दृष्टिकोण के कारण अय्यूब के पश्चाताप के बाद हम देखते हैं कि अय्यूब पर परमेश्वर का अद्भुत अनुग्रह होता है। जितना अय्यूब ने खो दिया था उसकी तुलना में परमेश्वर उससे अधिक आशीष देता है। दुगुना।

परमेश्वर विश्वासयोग्य है।

आज मसीही होने के नाते जब हम इस ईश्वरविहीन समाज में रहते हैं, और दुख उठाते हैं जब हमें मालूम भी नहीं है कि यह हमारे साथ क्यों हो रहा है? तब भी हम परमेश्वर पर विश्वास कर सकते हैं जो हमेशा उत्तम है वह करने में पर्याप्त रूप से बुद्धिमान, धर्मी और प्रेमी परमेश्वर है वह भरोसे के योग्य है । वह कभी ना छोड़ता है, ना कभी त्यागता है।

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बस हमें सिर्फ परमेश्वर के प्रति अपने रवैये को दुरुस्त करना है। जीवन की हर एक परिस्थिति में परमेश्वर पर भरोसा रखना है, उसके आज्ञाकारी बने रहना है, उससे प्रेम करते रहना है क्योंकि वह सच्चा है, न्यायी है, दुख देने से प्रसन्न नहीं होता। उसकी कल्पनाएं हमेशा हमारी भलाई के लिए होती है। हम जानते हैं कि जो लोग परमेश्वर से प्रेम रखते हैं उनके लिए सब बातें मिलकर भलाई ही को उत्पन्न करती हैं।

शालोम

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Anand Vishwas
Anand Vishwashttps://disciplecare.com
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