यीशु ने अपने शिष्यों को क्यों बुलाया? (Why Did Jesus Calls His Disciples?) प्रभु यीशु का प्राथमिक शिष्यों को बुलाने के पीछे क्या उद्देश्य था? नमस्कार, फिर से स्वागत है आपका मसीही जीवन के इस यात्रा में। तो हमने आपको बताया था कि हम आने वाले समय में मसीही जीवन के बारे में बात करेंगे, क्योंकि मसीही जीवन का उद्देश्य ही परमेश्वर की योजना को खोजना और लगातार उस सम्बन्ध में बढ़ना है जिसके लिए परमेश्वर ने हमें मसीह में बुलाया है।
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जैसा कि हमने पिछले विषय में बात किया था कि मसीही जीवन परमेश्वर के साथ निरंतर, घनिष्ठता में बढ़ने वाला एक सम्बन्ध है? सम्बन्ध चाहे कोई भी क्यों न हों उसमें कुछ मूल तत्व जरुर पाए जाते हैं; जिसमें निरंतर संगती, बातचीत, एक दूसरे के ऊपर भरोसा, प्रेम और विश्वास इत्यादि कुछ आवश्यक तत्व पाए जाते हैं। इन तत्वों का अभाव किसी भी सम्बन्ध को खोखला बना देता है।
मेरे प्रियों, मसीही जीवन की साहसिक यात्रा उस वक्त शुरू होती है जब कोई भी व्यक्ति प्रभु यीशु मसीह का निमंत्रण स्वीकार कर सकारात्मक रूप से प्रतिउत्तर देता है। मसीह के निमंत्रण को प्रतिउत्तर देने के लिए विश्वास को व्यवहार में लाने की जरुरत होती है। ये निमंत्रण हर एक विश्वास करने वालों के उद्धार के लिए भी है।
उद्धार के निमंत्रण का मतलब है, प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करने का निमंत्रण। जब हमने प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास किया तो हमने उसके बलिदान पर विश्वास किया। साथ ही साथ हमने यह भी विश्वास किया कि परमेश्वर हमारे पापों को क्षमा करने और हमें मोक्ष देने के लिए वचनबद्ध है।
मसीही जीवन एक ऐसा संबंध है जिसमें विश्वास महत्वपूर्ण है। बिना विश्वास के हम परमेश्वर को प्रसन्न भी नहीं कर सकते हैं। आप ये बात तो जानते ही हो कि संबंध हमेशा एक से नहीं रहते। संबंध, भरोसे के साथ गहरा होता जाता है।
मैं इस बात को दावे से साथ कह सकता हूँ कि जो लोग काफी समय से मसीही हैं, उनके लिए इस संबंध के गहरे होने की प्रक्रिया को समझना मुश्किल नहीं होगा, जब हम इस सम्बन्ध में उत्तरोतर बढ़ते जायेंगे, तो हम यह भी जान लेंगे कि वह विश्वासयोग्य है। वह मानवीय संबंधों के जैसे, न कभी धोखा देगा, न कभी मुश्किल वक्त में त्यागेगा। इसके वावजूद वो तो हमारे साथ रहकर हमें अपने वचन से प्रोत्साहित भी करेगा।
हाँ, जो व्यक्ति पहली बार प्रभु यीशु के पास आने का विचार कर रहा है, उसके लिए यह एक बहुत बड़ा निर्णय हो सकता है कि क्या वह यीशु मसीह पर इतना भरोसा कर सकता है कि वो मसीह के साथ इस रिश्ते को शुरू कर सके?
वह व्यक्ति यह निर्णय तब तक नहीं ले सकता है जब तक वह व्यक्ति यह जान नहीं लेता है कि प्रभु यीशु मसीह तो पहले से ही उससे कितना अधिक प्रेम करते है, यीशु तो पहले से ही उसके इंतजार में हैं। इस सम्बन्ध के लिए जो भी जरुरी प्रक्रिया थी, प्रभु ने वो पहले ही उस व्यक्ति के लिए पूरी कर दी है। जो कि न सिर्फ इस जीवन के लिए है, बल्कि वह तो अनंतकाल के लिए है।
प्रभु यीशु ने धरती पर इतना समय क्यों बिताया?
कभी न कभी आपके मन में भी ये विचार जरुर आया होगा कि प्रभु यीशु ने धरती पर इतना समय क्यों बिताया? अगर प्रभु यीशु का उद्देश्य पूरी मानवजाति को उद्धार देना ही था और यह उद्धार या छुटकारा क्रूस पर बलिदान के द्वारा ही होना था, तो क्यों उसने ऐसा नहीं किया कि वह जवानी के समय आता और फिर सीधे क्रूस पे उस महान उद्धार के कार्य को पूरा करता?
मेरे प्रियों, यदि प्रभु का इरादा आज के युग के रोबोटों के द्वारा छुटकारा देने का होता तो यह योजना और भी आसानी से सफल हो सकती थी, परन्तु परमेश्वर की योजना इससे भी कहीं अधिक अच्छी और मुश्किल थी। मनुष्य की रचना करते समय ही परमेश्वर का यही उद्देश्य था कि परमेश्वर, मनुष्य के साथ इस सम्बन्ध का भरपूर आनंद ले। अदन का बगीचा ही वह स्थान था जहां परमेश्वर प्रतिदिन मनुष्य के साथ संगति करता था।
पर जैसा कि आप जानते ही हैं कि वो संबंध पाप के द्वारा तोड़ दिया गया और मनुष्य कि इस गिरावट के बाद परमेश्वर ने मनुष्य को ढूंढा, तो मनुष्य परमेश्वर से छिपने लगा। छुटकारा, सृष्टिकर्ता और उसकी सृष्टि के बीच संबंध को संभव बनाता है। उस संबंध को जो परमेश्वर की दृष्टि में बहुत मूल्यवान है। वह चाहता था कि हम भी उस संबंध के महत्व को समझें।
यीशु का प्राथमिक शिष्यों को एक संबंध में बुलाना।
थोड़ी चर्चा इस विषय में भी करें कि किस प्रकार प्रभु यीशु ने अपने प्रथम शिष्यों को इस सम्बन्ध में बुलाया। (Why Did Jesus Calls His Disciples?) जब कोई व्यक्ति मसीह को अपने उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार करता है तो वह संबंध, जिसकी इच्छा प्रभु करता है, दोबारा संभव हो जाता है। वह निमंत्रण जो प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को अपने पीछे चलने के लिए दिया, बहुत बार नाटकीय जैसा लगता है।
उदाहरण के लिए मरकुस 1:14-20 में शिमोन, अंद्रियास और यूहन्ना के द्वारा यीशु की बात को सुनकर तुरंत उसके पीछे हो लेने की घटना को आप देखिए। यीशु के निमंत्रण पर वे तुरंत अपने जालों को छोड़कर उसके पीछे हो लेते हैं। हालाँकि आगे चलकर उन्हें सेवा में विशेष जिम्मेदारियां और चुनौतियों का सामना करना था लेकिन प्रभु यीशु का प्रारंभिक उद्देश्य यह नहीं था।
प्रभु यीशु के बुलाने के बाद और उनका यीशु के पीछे चलने के निर्णय का यह परिणाम यह हुआ कि वे यीशु मसीह के साथ समय बिताने लगे, बहुत सारा समय। अब वे अकेले नहीं थे। इसी प्रकार मती ने भी जो कि एक कर संग्राहक था उसने अपनी अच्छी भली पदवी को छोड़कर यीशु के निमंत्रण को स्वीकार किया, जहां उसे आगे चलकर आर्थिक अनिश्चितता का सामना करना पड़ सकता था। (मत्ती 9:9-10)
इसका तत्कालीन परिणाम था यीशु मसीह के साथ समय बिताना और उसके साथ भोजन करना, जिसके कारण उस वक्त शास्त्री और फरीसियों ने भी यीशु मसीह की आलोचना की थी कि यीशु कर संग्राहक या पापी लोगों के साथ उठता-बैठता है। ध्यान दें, कि यीशु के लिए तो लोगों के सुझाव से अधिक मती के साथ संबंध का अधिक महत्व था। यह बात स्पष्ट है कि जिन्हें यीशु मसीह ने बुलाया, उनके साथ संबंध ही उसकी प्राथमिकता थी।
मेरे प्रियों, जब आप बातचीत करते हुए, कुछ गतिविधियों में शामिल होते हुए किसी व्यक्ति के साथ समय बिताते हैं, तो धीरे धीरे आप उस व्यक्ति की मान्यताओं को भी समझने लग जाते हैं। महत्वपूर्ण बातें और भी साफ हो जाती हैं, क्योंकि वे कथनी और करनी दोनों के माध्यम से व्यक्त होती हैं।
फिर वे मूल्य यदि आपको अच्छे लगते हैं, तब तो ये जो संबंधात्मक रिश्ता है; इसमें और भी मजबूती आएगी। समय के साथ आप एक दूसरे को और अधिक जानने लग जाते हैं। जरुरत पड़ने पर आप एक दूसरे के लिए बलिदान देने तक तैयार हो जाते हैं। जो कि प्रभु यीशु ने सम्पूर्ण मानवजाति के लिए किया भी।
जब यीशु ने उन्हें जो आगे चलकर उनके शिष्य बनने वाले थे, बुलाना शुरू किया तो यह बुलाहट सेवकाई में किसी विशेष भूमिका के मध्यनजर नहीं थी। उदाहरण के लिए यीशु ने यूहन्ना से यह नहीं कहा कि आ मेरी जीवनी लिख, परंतु ये बात आप जानते ही हैं कि उसने आगे चलकर ऐसा किया। उस वक्त तो उसका काम केवल प्रभु यीशु के साथ समय बिताना था, उसे जानना था और उसके साथ एक संबंध को शुरू करना था।
इससे पहले कि उन्हें सेवा के लिए भेजा जाता, वे अपने अधिकार का इस्तेमाल करते उन्हें उसके साथ रहने और समय बिताने के लिए बुलाया गया था।
जब यीशु ने अपने शिष्यों को, जो आने वाले समय में उसके प्रेरित बनने वाले थे, अलग करना शुरू किया तो यह प्राथमिकता और भी साफ हो गई। इससे पहले कि उन्हें सेवा के लिए भेजा जाता, वे अपने अधिकार का इस्तेमाल करते उन्हें उसके साथ रहने और समय बिताने के लिए बुलाया गया था। मरकुस 3:13-15
यीशु ने चमत्कारी रीति से उनको उन गुणों से नहीं भरा जो उनको शिष्य बनने के लिए होने अनिवार्य थे। परंतु इसके बजाय यीशु ने उन्हें अपने साथ एक संबंध में बुलाया जहां उन्होंने अपने स्वामी के हृदय को जानना शुरू किया।
शिष्यता की बुलाहट सबसे पहले एक संबंध में शामिल होने की बुलाहट है।
चूँकि मसीह का निमंत्रण उनके शिष्यों के लिए एक संबंध के लिए निमंत्रण था और इसलिए यह एक व्यक्तिगत निमंत्रण था। इससे यह बात तो साफ हो जाती है कि उसका इरादा कार्यकर्ताओं की एक टीम को तैयार करना तो बिलकुल भी नहीं था। हाँ, यीशु ऐसा भी कर सकते थे लेकिन यीशु ने ऐसा नहीं किया।
क्योंकि यीशु इस बात को जानते थे कि संबंधों में समय लगता है। तभी वह व्यक्तिगत रूप से उनके पास गया। यीशु उनके अलग-अलग व्यक्तित्व और उनकी निजी परिस्थितियों के बारे में जानता था। उसने उन्हें एक ऐसे प्रेमपूर्ण सम्बन्ध में बुलाया जिसमें वे जैसे थे, वैसे ही स्वीकार किये गए थे और वहां वो पूर्ण क्षमा और संतुष्टि का अनुभव कर सकते थे।
कितना अद्भुत है न? कि परमेश्वर मुझे व्यक्तिगत रीति से प्यार करता है और मेरे साथ एक संबंध की इच्छा रखता है। यूहन्ना 3:16 जो हमें बताता है कि उसने मुझे व्यक्तिगत रीति से प्यार किया ताकि मैं नाश न होऊं बल्कि हमेशा की जिंदगी का आनंद लूँ। परमेश्वर के द्वारा धरती पर मनुष्य रूप में अवतार लेने के अद्भुत परिणामों में से एक यह है कि प्रभु ने हमारे अनुभव के क्षेत्र में प्रवेश किया और वह हमें एक प्रेमपूर्वक संबंध में वो बुलाता है।
आज्ञाकारिता प्रेमपूर्ण सम्बन्ध का अपेक्षित परिणाम है।
इस सबंधात्मक प्राथमिकता का मतलब यह नहीं है कि आज्ञाकारिता के किसी विशेष काम या सेवा के लिए कोई बुलाहट ही नहीं है। वचन साफ बताता है कि उसने हमें ऐसी बुलाहट भी दी। परन्तु हमारी आज्ञाकारिता और सेवा का समर्पण, प्रेम से प्रेरित होना चाहिए।
हम परमेश्वर से इसलिए प्रेम करते हैं क्योंकि पहले उसने हमसे प्रेम किया। इसलिए उसका वचन भी कहता है कि यदि तुम मुझसे प्रेम रखते हो तो मेरी आज्ञाओं को भी मानोगे। इसलिए हमारी आज्ञाकारिता प्रेम से प्रेरित होनी चाहिए।
उदाहरण के लिए यूहन्ना 14:23 जो यह बताता है कि आज्ञाकारिता, प्रेमपूर्ण सम्बन्ध का अपेक्षित परिणाम और उस संबंध को मजबूत बनाने का माध्यम दोनों ही है। यहाँ यीशु बताते हैं कि यदि कोई मुझसे प्रेम रखेगा और मेरी बातों को मानेगा तो हम उसके साथ वास करेंगे। याद रखिये, बिना सम्बन्ध के आज्ञाकारिता और सेवा बोझ बन जाते हैं जो कि लम्बे समय तक चल नहीं सकता है।
बिना सम्बन्ध के आज्ञाकारिता और सेवा बोझ बन जाते हैं।
ख़ुशी की बात तो यह है कि मसीही लोग उद्धार पाए हुए रोबोट नहीं है, क्योंकि रोबोटों को आज्ञापालन और सेवा के लिए निर्देश की आवश्यकता पड़ती है। परन्तु शिष्यों को तो एक ऐसे संबंध में बुलाया गया है जो उनके अंदर आज्ञापालन और सेवा की इच्छा को प्रेरित करता है। संबंधों में समय लगता है, यीशु इस बात को जानता था। इसी वजह से यीशु ने उन संबंधों का निर्माण करने में पर्याप्त समय का निवेश किया और आज वो अपने पीछे चलने वालों के लिए भी ऐसा ही निमंत्रण देता है।
क्या ये बातें आपके लिए भी सत्य हैं? क्या आप भी उस सम्बन्ध का भरपूर आनंद ले रहें हैं, जिसके लिए प्रभु ने आपको बुलाया है? क्या आपकी आज्ञाकारिता भी प्रेम से प्रेरित है? यदि आप भी इस बात को मानते हैं कि मसीही जीवन परमेश्वर के साथ एक रिश्ता है, तो आप इस रिश्ते को मजबूत करने के लिए क्या करते हैं? क्या आपके पास परमेश्वर से बातचीत करने, उसके साथ संगती करने, प्रार्थना करने, उसके वचनों को पढ़ने के लिए समय है? क्या आप उसके ऊपर भरोसा करते हैं? इन बातों पर विचार करने के लिए जरुर समय निकालें।
मेरे प्रियों, एक बार फिर से मरकूस 3:13-15 पर विचार करना और आप अपना सुझाव कॉमेंट सेक्शन में लिख सकते हैं। आशा करता हूं आपको समझ आया होगा कि प्रभु यीशु का प्राथमिक उद्देश्य क्या था अपने चेलों को बुलाने के बारे में?
शालोम
Dhanyavaad ji