एक मसीही के लिए बाइबल अध्ययन करना क्यों महत्वपूर्ण है? (Importance of Bible Study) बाइबल के साथ आपका वर्तमान संबंध क्या है? आप इसे कैसे देखते हैं? क्या आप इसे पढ़ते हैं? कितनी बार और कब तक? इस अध्ययन को शुरू करने से पहले थोड़ा समय इस विषय पर चिंतन करें कि बाइबल आपके लिए कितनी महत्त्वपूर्ण है।
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जैसा कि हमने पिछले विषय में बात किया था कि बाइबल विश्वासियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि बाइबल पढ़ने से परमेश्वर के साथ हमारा रिश्ता मज़बूत होता है, ये उसके वचन में बने रहने में भी सहायता करता है। निरंतर बाइबल पढ़ने से हमारी आत्मिक उन्नति होती है और हम परिपक्वता में बढ़ते जाते हैं। निरंतर बाइबल पढ़ने से हम परमेश्वर की इच्छा को जान पाते हैं जो हमें सेवा के लिए तैयार करता है।
अतः जब हम ये जानते हैं कि बाइबल अध्ययन (Bible Study) हमारे लिए अतिआवश्यक है तो हमें अच्छी बाइबल अध्ययन की आदतों को अपने जीवन में विकसित करना चाहिए। वचन अध्ययन को अपने प्रतिदिन के जीवन में प्राथमिकता देना चाहिए, जिससे हम प्रभु के उद्देश्य को पूरा कर सकें और खुद भी एक उद्देश्य चालित जीवन जी सकें।
बहुत से लोग आज वचन का अध्ययन के लिए समय नहीं निकालते हैं शायद वे इसे अपने जीवन की प्राथमिकता नहीं समझते हैं। परमेश्वर का वचन बहुत कीमती है, वह हमारा मार्गदर्शक है, हमारे लिए आईना है जिसमें हम अपने आप को जांच कर सही कर सकते हैं। बिना परमेश्वर के वचन का अध्ययन करके हम परमेश्वर को नहीं जान सकते हैं और न उसकी मानवजाति के लिए योजना को समझ सकते हैं। आज दुःख इस बात का है कि परमेश्वर के लोग नाश हो रहे हैं क्योंकि वे परमेश्वर को जानते ही नहीं हैं। (होशे 4:6)
बाइबल का अध्ययन हर एक विश्वासी के लिए बहुत महत्व रखता है। परमेश्वर ने अपने बड़े नाम से ज्यादा अपने वचन को ही महत्व दिया है। उसका वचन अटल है और उसमें जो कुछ भी लिखा हुआ है वह कभी न टलेगा। (यशायाह 55:10-11)
घास तो सूख जाती है और फूल मुर्झा जाता है; परंतु हमारे परमेश्वर का वचन सदैव अटल रहेगा। – यशायाह 40:8
हम परमेश्वर के वचन से उन आदर्शों के बारे में बात करेंगे जो बाइबल अर्थात वचन अध्ययन को अपने जीवन में प्राथमिकता देते थे। साथ ही साथ हम यह भी जानेंगे कि उनके वचन अध्ययन से क्या लाभ हुआ। सबसे पहले हमारे सर्वथा उचित आदर्श यीशु के बारे में बात करते हैं।
बाइबल अध्ययन के लिए यीशु के जीवन से सबक।
मसीही होने के नाते हमारे लिए प्रभु यीशु का अनुसरण करना अतिआवश्यक है। वचन बताता है कि जैसा उसका स्वभाव था वैसा ही हमारा भी होना चाहिए। सुसमाचार की पुस्तकें बताती हैं कि प्रभु यीशु का पूरा जीवन पवित्रशास्त्र के ज्ञान से भरा हुआ था। जिन्हें यीशु ने प्रतिदिन के जीवन में तथा अपनी शिक्षा के नींव के रूप में इस्तेमाल किया। (लूका 2:41-52) एक बालक के समान यीशु ने परमेश्वर के वचन को सुनने को और इसके बारे में प्रश्नों को पूछकर, प्रश्नों का उत्तर देने को प्राथमिकता दिया। लोग उनकी समझ और उनके उत्तरों पर आश्चर्यचकित हुए।
यह ध्यान देने योग्य बात है कि यीशु का ज्ञान इसलिए नहीं था क्योंकि वह परमेश्वर था। वचन 52 स्पष्ट करता है कि यीशु ज्ञान में बढ़ता गया। यीशु की आत्मिक वृद्धि वचन को सुनने के द्वारा और उस पर प्रश्न करने के द्वारा हुई। यहूदी संस्कृति में लगभग 12 साल तक के उम्र तक बच्चों को वचन की संपूर्ण शिक्षा दी जाती थी।
यीशु के वचन अध्ययन का फल हम वचन के कई भागों में देखते हैं। जब शैतान द्वारा उसे परखा गया तो प्रत्येक बार शैतान ने यीशु को चुनौती दी कि वह पाप करे। लेकिन शैतान इस कार्य में सफल न हो पाया क्योंकि यीशु ने वचन का हवाला देकर उसका प्रतिउत्तर दिया। शैतान द्वारा यीशु की परीक्षा में ध्यान देने वाली बात यह भी है कि शैतान भी बाइबल से अनभिज्ञ नहीं है, उसे भी मालूम है कि वचन क्या कहता है।
इसलिए प्रभु यीशु जानते थे कि उन्हें वचन को पढ़ना था, उन्हें वचन को याद करना था और यह भी सोचना था कि ये वचन जीवन में लागू कैसे होंगे। यीशु के पास पुराना नियम का अतुलनीय ज्ञान था। यीशु ने इसका इस्तेमाल भीड़ को शिक्षा देने के समय, विरोधियों को गलत साबित करने के समय और अपने चेलों से बातचीत के समय किया। (मती 5:21-48, लूका 4:16-21, 20:27-40, 24:13-35)
सुसमाचार की पुस्तकों में हम कई सबूत देखते हैं कि प्रभु यीशु ने पवित्र शास्त्र का अध्ययन किया था।
- उसने प्रतिदिन लोगों को उत्तर देने के लिए पवित्रशास्त्र का इस्तेमाल किया।
- अनेक बार उसने पुराने नियम से हवाले दिए थे।
- वह जानता था कि वह कैसे पवित्र शास्त्रों से संबंध रखता है।
- पवित्रशास्त्र के बारे में प्रश्नों को सुनना और विचार विमर्श करना उसकी प्राथमिकता थी तब से जब वह बालक ही था।
आइए अब एक दूसरे आदर्श के बारे में बात करें जो वचन अध्ययन को बहुत अहमियत देता था। उनके भजनों से आप इस बात को जान सकते हैं कि वह परमेश्वर के वचन को कितना अहमियत देता था।
बाइबल अध्ययन के लिए राजा दाऊद के जीवन से सबक।
आप जानते ही हैं कि राजा दाऊद के विषय परमेश्वर अपने वचन में ऐसे कहता है, “मुझे मेरे मन के अनुसार एक ऐसा पुरुष मिल गया है जो मेरी सारी इच्छा पूरी करेगा। (प्रेरितों 13:22) राजा दाऊद को ईश्वरीय हृदय वाला व्यक्ति कहा जाता था। दाऊद के भक्तिमय जीवन की नींव, परमेश्वर के साथ उसका घनिष्ठ संबंध था जिसे राजा दाऊद ने अपने कई भजनों में भी वर्णित किया है। बाइबल के सबसे बड़े अध्याय और भजन 119 में दाऊद ने इस बात का जिक्र किया है कि उसके लिए वचन कितना अधिक मूल्यवान था।
इसका अध्ययन करने से हमें मालूम होता था कि दाऊद परमेश्वर के वचन का अध्ययन कितना अधिक किया करता था। दाऊद कहता है कि तेरे धर्ममय नियम के कारण मैं आधी रात को तेरा धन्यवाद करने को उठूंगा। (भजन 119:62) दाऊद परमेश्वर के वचन से प्रीति रखता था और दिन भर उसका ध्यान वचन में लगा रहता था। (भजन 119:97)
सुबह होने से पहले ही वह परमेश्वर की दोहाई देता था और अपनी आशा को परमेश्वर के वचनों पर लगाता था। दाऊद की आंखें रात के एक एक पहर में इसलिए खुलती थी कि वह परमेश्वर के वचन पर ध्यान करे। (भजन 119:147-148) वह परमेश्वर के धर्ममय नियमों के कारण प्रतिदिन सात बार स्तुति करता था। (भजन 119:164)
दाऊद के लिए परमेश्वर का वचन इतना अधिक महत्व रखता था कि उसने परमेश्वर के वचन को याद किया, इसे पढ़ा, इसका आज्ञापालन किया और दूसरों को भी सिखाया। दाऊद ने परमेश्वर के वचन का इस्तेमाल मागदर्शन के लिए, आराधना के लिए, दूसरों की आलोचनाओं का उत्तर देने के लिए और पाप से बचने के लिए किया।
हमने दाऊद के जीवन से देखा कि वचन का अध्ययन और इसे जीवन में लागू करना कितना महत्वपूर्ण है और साथ ही साथ परमेश्वर के साथ अपने रिश्ते को मजबूत करने के लिए भी यह महत्वपूर्ण है।
बाइबल अध्ययन के लिए एज्रा के जीवन से सबक।
एज्रा भी एक और उदाहरण है जिसने परमेश्वर के वचन को महत्व दिया और उसका अध्ययन भी किया। एज्रा एक याजक और शास्त्री था जो परमेश्वर के लोगों के साथ बेबीलोन की बंधुआई से वापस आया था। एज्रा परमेश्वर की व्यवस्था का एक निपुण शास्त्री था। (एज्रा 7:6, नहेम्याह 8:1-12)
एज्रा परमेश्वर के लोगों को फिर से आत्मिक जागृति की ओर ले गया। एज्रा तथा लेवियों ने व्यवस्था की पुस्तक को पढ़ा, इसका अर्थ समझाया जिससे लोग समझें कि क्या पढ़ा गया था। जब लोगों को वचन समझ आया तो लोगों ने मन फिराया और आराधना के साथ इसका प्रतिउत्तर दिया। इससे हम देख सकते हैं कि वचन का सही ज्ञान होना जरूरी है और वचन पर मन लगाना जरुरी है। हम शास्त्री एज्रा से निम्न बातों को सीख सकते हैं। (एज्रा 7:10)
- उसने वचन का अध्ययन किया।
- अपने जीवन में लागू किया।
- दूसरों को सिखाया।
एज्रा के जीवन से हम सीख सकते हैं कि वचन का अध्ययन करना, उसको अपने जीवन में लागू करना और दूसरों को सिखाना कितना महत्वपूर्ण है। आज जब वचनों को पढ़ा जाता है, क्या पढ़ने वाला उसको स्वयं जानता व समझता है? यदि ऐसा है तो वह दूसरों को भी इसे समझा सकता है जिससे लोग वचन के प्रतिउत्तर में मन फिराएं और विश्वास करें और सच्चे परमेश्वर के पास लौट आएं।
बाइबल अध्ययन के लिए पौलुस के जीवन से सबक।
प्रेरित पौलुस ने भी एक यहूदी फरीसी के जैसे प्रशिक्षण लिया था और उस वक्त के सर्वोत्तम शिक्षकों के अधीन अध्ययन किया था। प्रेरित पौलुस को परमेश्वर ने अन्यजातियों तक सुसमाचार पहुंचाने के लिए इस्तेमाल किया। परमेश्वर के वचन की सही शिक्षा देने के लिए उसके वचन अध्ययन ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। पौलुस ने अपने तर्क को पुराने नियम के वचनों के आधार पर बनाया, जिसके लिए पवित्रशास्त्र के सम्पूर्ण ज्ञान की आवश्यकता थी। (गलातियों 4:23-31, रोमियाें 9:6-14)
पौलुस का पवित्रशास्त्र का महत्व देना उसके तीमुथियुस के साथ संबंध में भी देखा जा सकता है। पौलुस ने पवित्रशास्त्र का इस्तेमाल अपने जवान चेले को शिक्षा देने में, उसको पवित्रशास्त्र को जानने के महत्व देने में इस्तेमाल किया। (2 तीमुथियुस 2:15, 3:15)
हालांकि तीमुथियुस बचपन से ही पवित्रशास्त्र को जानता था। फिर भी पौलुस चाहता था कि तीमुथियुस सेवकाई की तैयारी में परिश्रम करे। पौलुस उसको उत्साहित करता है कि जो कुछ भी उसने सीखा है उन शिक्षाओं में वह बना रहे। नया नियम में पौलुस के द्वारा लिखी पत्रियां यह साबित करती हैं कि पौलुस एक महान विद्वान था। वह महान विद्वान इसलिए था क्योंकि वह परमेश्वर के वचन का अध्ययन करता था।
जिन बातों को करने के लिए पौलुस दूसरों को उत्साहित करता था, पौलुस स्वयं उन बातों को अपने जीवन में भी लागू करता था। आज के समय भी पौलुस द्वारा लिखी गई पत्रियां हमें सही सैद्धांतिक शिक्षा प्रदान करती हैं। मेरे ख्याल से आप समझ गए होंगे कि वचन का अध्ययन के प्रति हमें गंभीर होने की आवश्यकता है।
बाइबल अध्ययन के लिए बिरीया के लोगों से सबक।
पौलुस ने अपनी मिशनरी यात्रा के दौरान बिरीया में कुछ समय बिताया था। हालांकि हम बिरीया के लोगों के बारे में कुछ ज्यादा तो नहीं जानते हैं फिर भी जो घटना घटी है, उससे हम जान सकते हैं कि पौलुस ने उनकी प्रशंसा की है क्योंकि…
- वे थिस्सलुनिके के विश्वासियों से भले थे।
- उन्होंने बड़ी लालसा से वचन को ग्रहण किया था।
- प्रतिदिन उन्होंने वचन में ढूंढा।
- जांचने और सही पाए जाने पर उन्होंने उन बातों का विश्वास किया जो पौलुस और सीलास द्वारा उनको बताई गई थी। (प्रेरितों 17:10-12)
इससे हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि बिरीया के लोग वचन अध्ययन को बहुत अधिक महत्व देते थे। हम उनसे सीख सकते हैं कि हमें भी आने वाली हर शिक्षा को वचन के प्रकाशन में उसकी सत्यता जांचना जरुरी है। परमेश्वर के वचन को जानने की लालसा होना जरूरी है।
हमें पूरे जीवन भर परमेश्वर के वचन के एक छात्र बने रहना चाहिए। जो कुछ भी हम सीखते हैं उसे लागू करते रहना चाहिए।
परमेश्वर के वचन का नियमित अध्ययन हमें इस योग्य बनाता है कि हम जीवन में आने वाली शैतान की चालाकियों को समझें और उसका सामना करें। परमेश्वर के वचन का अध्ययन हमें सक्षम बनाता है कि हम विरोधियों को उचित रीति से प्रतिउत्तर दे सकें। परमेश्वर का वचन हमें परमेश्वर के साथ रिश्ते को मजबूत बनाने में मदद करता है। परमेश्वर के वचन का अध्ययन हमें आत्मिक रीति से बढ़ाता है और परिपक्व बनाता है। परमेश्वर का वचन हमें सेवा करने के लिए तैयार करता है। परमेश्वर का वचन हमें सही और गलत शिक्षा का मूल्यांकन करने में मदद करता है।
इसलिए मेरे प्रिय, आप परमेश्वर के वचन को अध्ययन करने के लिए उस समय में से जरूर समय निकालें जो समय आपको परमेश्वर ने दिया है।
शालोम