स्वामी की इच्छा पूरा करने के लिए विशेषताएँ? अपने स्वामी की इच्छा को कैसे पूरा करें? (Fulfilling King’s Desire) जैसा कि आप जानते हैं कि परमेश्वर ही एकमात्र सृष्टिकर्ता, हमारा स्वामी है। वही है जो राजाओं का राजा है और प्रभुओं का प्रभु है। वही एकमात्र प्रभु, मनुष्यों के राज में भी राज करता है। जबकि हम भी उसी कार्य में शामिल हैं जिसके कारण यीशु को इस दुनियां में आना पड़ा। (पढ़ें, यीशु दुनियां में क्यों आया?) तो यह जरुरी हो जाता है कि हम उस एकमात्र स्वामी की इच्छा को जाने और पूरा करें। इसके लिए हमें उसके वचन में बहुत सी बातें सीखने को मिलती हैं और हम उसका अध्ययन करके आसानी से परमेश्वर की इच्छा को जान सकते हैं और हमें दिए गए दानों, वरदानों और संसाधनों से अपना योगदान दे सकते हैं।
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2 शमूएल 23:13-16 में हम तीन असाधारण व्यक्तियों के बारे में पढ़ते हैं, जिन्होंने बैतलहम के फाटक के कुएं से पानी पीने की अपने राजा दाऊद की इच्छा को पूरा करने के लिए अपना सब कुछ, यहां तक कि अपनी जान भी जोखिम में डाल दी थी। (इनके बारे में या अन्य दाऊद के शूरवीरों के बारे में जानने के लिए आप 2 शमूएल 23:8-39 तक पढ़ें) यहाँ हम उनके जीवन में तीन महान गुणों से सबक ले सकते हैं। इन तीन महान गुणों ने उन्हें उच्च प्रतिबद्धता वाला व्यक्ति बनाया था। और वे गुण थे – अपने राजा के प्रति समर्पण, जोखिम उठाने वाले, टीम के रूप में मिलकर कार्य करने वाले। आइए सबसे पहले बात करें उनके समर्पण की, जो उनका अपने राजा के प्रति था।
अपने जीवन को अपने स्वामी के प्रति समर्पित करें।
उन्होंने अपना जीवन और सब कुछ अपने राजा दाऊद को सौंप दिया था। समर्पण के बिना कोई बलिदान नहीं होता। संपूर्ण समर्पण एक व्यक्ति को पूरी तरह से बलिदानी बनने में सक्षम बनाएगा। यीशु ने स्वयं को पूरी तरह से अपने पिता की इच्छा के प्रति समर्पित कर दिया था, इसलिए वह क्रूस उठाने और पिता की इच्छा के अनुसार स्वयं का बलिदान करने में सक्षम था। समर्पण के साथ हमें एक कीमत चुकानी पड़ती है। और वो कीमत है, अपनी इच्छा को दरकिनार करके अपने स्वामी की इच्छा को पूरी करना।
पौलुस मसीह में अपने अनुभव को बताता है कि “मैं मसीह के साथ क्रूस पर चढ़ाया गया हूँ, अब मैं जीवित न रहा, पर मसीह मुझ में जीवित है; और मैं शरीर में अब जो जीवित हूँ तो केवल उस विश्वास से जीवित हूँ जो परमेश्वर के पुत्र पर है, जिस ने मुझ से प्रेम किया और मेरे लिये अपने आप को दे दिया।” (गलातियों 2:20) यही मसीही जीवन की सच्चाई है। अब हमें परमेश्वर की दया स्मरण करके कि किस प्रकार उसने हम पापियों को बचाया है; (जिसे रोमियों 1-11 में बताया गया है।) अपने जीवन को जीवित, पवित्र और परमेश्वर को भावता हुआ बलिदान चढ़ाने की आवश्यकता है। और एक मसीही के लिए यही एक सच्चा समर्पण है, सच्ची सेवा है और सच्ची आराधना है। (रोमियों 12:1) अगला गुण जो एक स्वामिभक्त सैनिक में होना चाहिए, जिसे हम दाऊद के इन तीन शूरवीरों में देखते हैं वो है जोख़िम उठाने के लिए तैयार रहना।
जोख़िम उठाने वाले बने।
जो कार्य दाऊद के इन तीनों शूरवीरों ने किया वह आँखें मूंदकर किया गया कार्य मात्र नहीं था बल्कि यह उनके कार्य का परिणाम था। क्योंकि कुआँ शत्रु की सीमा के अन्दर था। उन्होंने अपना जीवन खतरे में डाला। एक साधारण कुएँ के थोड़े से साधारण पानी के कारण ही वे अपने जीवन से हाथ धो सकते थे। लेकिन जोख़िम के बिना कुछ नहीं मिलता है। मुफ्त में कुछ भी नहीं मिलता, बल्कि हमें कीमत चुकानी होती है। दाऊद की तो सिर्फ यही इच्छा थी कि उनका क्षेत्र उन्हें वापिस मिल जाए, जहाँ पर वो कुआँ था। बस अपने स्वामी राजा की इच्छा को पूरी करने के लिए ये तीनों योद्धा निकल जाते हैं और अपने स्वामी की इच्छा को पूरी करते हैं जिसके लिए उन्होंने अपने जीवन को जोख़िम में डाल दिया।
“जो व्यक्ति जोख़िम लेने के लिए पर्याप्त साहसी नहीं है वह जीवन में कुछ भी हासिल नहीं कर पाएगा।”
लूका 14:25-33 में यीशु अपने शिष्य होने में शामिल जोखिम के बारे में बात करते हैं। यीशु अपने शिष्यों को बताते हैं कि यदि हम यीशु के पीछे चलने का निर्णय लेते हैं तो हमें पहले हिसाब कर लेना चाहिए; जिस प्रकार हम घर बनाते समय हिसाब लगाते हैं, जिस समय कोई राजा युद्ध पर निकलने से पहले हिसाब लगाता है। जब तक हम त्यागने के लिए तैयार नहीं हैं तो हम जोख़िम उठाने के लिए भी तैयार नहीं हैं। पौलुस, सभी प्रेरित और पहली सदी के मसीहियों ने मसीह के लिए अपना जीवन और अपना सब कुछ जोखिम में डाल दिया था। उसका परिणाम आज यह है कि हम लोग आज सच्चे परमेश्वर को जान पाए हैं जो हमसे बेहद प्रेम करता है, जो चाहता है कि कोई भी नाश न हो।
और यह मसीह का ही प्रेम है जो हमें उसके लिए जीने को विवश करता है। (2 कुरिन्थियों 5:14-15) आज जबकि चारों ओर मसीह विरोधी अन्धकार की ताकतें परमेश्वर के लोगों के विरुद्ध षड्यंत्र बनाने में जुटी हैं तो मसीह में मेरे प्रियों, हम भी अपने आराम के क्षेत्र (Comfort Zone) से बाहर निकलें और मसीह के प्रेम को दूसरों तक पहुँचाने का जोख़िम उठायें। अपने प्राण की चिंता न करें। मसीह विरोधी ताकतें शरीर को नुकसान जरुर पहुंचा सकती हैं लेकिन वे आत्मा का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। दाऊद के इन तीन शूरवीरों से हम एक बात यह भी सीख सकते हैं कि ये तीनों एक टीम के रूप में मिलकर कार्य करने वाले थे।
टीम के रूप में मिलकर कार्य करें।
जैसे ही उन्होंने अपने स्वामी राजा दाऊद की इच्छा के बारे में सुना वे तीनों जल्दी ही सहमत हो गये। वे एकचित्त थे। पूर्ण समर्पण, पूर्ण एकता लाता है। वे एक साथ चले, शत्रु से लड़े; कुएँ तक आये। अब शायद एक को कुएं के अंदर पानी लाने के लिए उतरना था जबकि अन्य दो को उसकी रक्षा करनी थी और अंत में एक दूसरे की रक्षा करते हुए वापस आना था। फिर भी उनमें से किसी ने भी अपना श्रेय लेने की कोशिश नहीं की। उनके लिए यदि कोई चीज़ मायने रखती थी तो वह थी उनके स्वामी की इच्छा।
इन गुणों ने उन्हें अपने स्वामी की इच्छा पूरी करने में मदद की। कहानी हमारे महान स्वामी की याद दिलाती है जो अनमोल आत्माओं के भी प्यासे थे। क्रूस पर यीशु ने कहा, “मैं प्यासा हूँ।” इसमें कोई संदेह नहीं कि यह यीशु की शारीरिक प्यास थी लेकिन इसका संदेश इससे कहीं आगे तक जाता है। यीशु मानवजाति की आत्माओं को बचाने के लिए प्यासे हैं। क्या हम आज उसकी आवाज़ सुनते हैं? क्या हमने भी उन तीन शूरवीरों की तरह अपने प्राण अपने स्वामी को सौंप दिये हैं? क्या हमने अपना जीवन, अपना परिवार और धन को उसे समर्पित किया है?
ध्यान दें कि उनको राजा दाऊद ने कोई आज्ञा नहीं दी थी बल्कि इच्छा जताई थी कि, “कौन मुझे बैतलहम के फाटक के पास के कुएँ का पानी पिलाएगा?” तौभी उन तीनों ने अपनी जान को जोख़िम में डालकर उस कुएं का पानी लाया। आज परमेश्वर की इच्छा है कि कोई भी नाश न हो, हर एक आत्मा नाश होने से बच जाए। तो एक सच्चे परमेश्वर को जानते हुए हमें भी अपने स्वामी के प्रति समर्पित होना चाहिए और उसके लिए किसी भी जोख़िम को उठाने के लिए तैयार रहना चाहिए। क्योंकि जो कोई अपने प्राण को खोएगा वो उसे पाएगा।
सारांश
आत्माओं को बचाना आसान काम नहीं है। चूँकि कुआँ शत्रु के नियंत्रण में था, जैसे कि आज भी बहुमूल्य आत्माएँ शत्रु के नियंत्रण में हैं। हमें दुनियां में शैतान और बुरी ताकतों से लड़ना है। शैतान आसानी से लोगों को छोड़ने वाला नहीं है। इसलिए बाइबल यहूदा 23 में कहती है – “बहुतों को आग में से झपटकर निकालो और उन पर दया करो।” साथ ही हम ये जानते हैं कि दुनियां हमारे विरुद्ध है। लोग हमारा उपहास करेंगे, हमें अपनी सुख-सुविधाएँ छोड़नी पड़ेंगी; हमें अपने आराम के क्षेत्र से बाहर निकलना होगा। हो सकता है कि हमें पीड़ा और उत्पीड़न सहना पड़े। किसी ने इस प्रकार कहा है, “जहाँ पीड़ा नहीं, वहाँ ईनाम भी नहीं।”
और अंततः, इन लोगों ने उत्कृष्ट Team Work का प्रदर्शन किया। क्या कलीसिया के रूप में हम यहाँ से सबक ले सकते हैं? क्या हम अपने स्वामी की इच्छा को पूरा करने के लिए अन्य मसीही संगठनों और समूहों के साथ साझेदारी कर रहे हैं? हमें एक दूसरे की आवश्यकता है क्योंकि हम मसीह के एक ही देह के विभिन्न सदस्य हैं। हमें मिलकर उसके लिए कार्य करना होगा।
हमारे सामने एक महान कार्य है। अभी भी बहुत से लोग हैं जिन्हें प्रेमी उद्धारकर्ता परमेश्वर के बारे में मालूम ही नहीं है। यीशु के न्याय करने से पहले ये दुनियां के अंतिम पल हैं। हमारे पास समय बहुत कम है। प्रभु का वचन इस मामले में स्पष्ट है कि हर एक प्रभु प्रभु कहने वाला स्वर्ग नहीं जाएगा बल्कि वो ही जाएगा जो हमारे एकमात्र स्वामी की इच्छानुसार चलेगा। (मती 7:21) आइए हम परमेश्वर के कार्य के प्रति पूर्ण समर्पण का जीवन जीयें और एक टीम के रूप में उसकी महिमा और उसके राज्य के लिए जोखिम उठाएं।
शालोम