यीशु से सीखें प्रार्थना कैसे करें? (Learning From Jesus How To Pray?) मती 6:9-13, लूका 11:1-4 में प्रभु यीशु द्वारा अपने चेलों सिखाई गई ये Prayer किसी औपचारिकता (Formality) को पूरा करना नहीं है, परंतु ये प्रार्थना, जीवन की गंभीरता और उसके लक्ष्य को बताती है।
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जब प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को बुलाया तो उन्हें अपने साथ रहने के लिए बुलाया। प्रभु यीशु के साथ रहने से उनके जीवनों में सुधार होने वाला था। प्रभु यीशु को देखना, उससे बातचीत करना और उससे सीखना उन शिष्यों के लिए काफी दिलचस्प अनुभव रहा होगा।
वे प्रभु यीशु की प्रार्थना की आदत को देखते आ रहे थे और शिष्यों ने प्रभु यीशु के जीवन में इस बात पर भी ध्यान दिया था कि वह पिता के साथ बातचीत को कितना अधिक महत्व देता था। (मरकुस 1:35-38, लूका 11:1)
प्रभु यीशु के प्रार्थना जीवन को देखने के बाद उनके एक शिष्य ने उनसे कहा कि प्रभु, हमें प्रार्थना करना सिखा। इस निवेदन तथा इस निवेदन के लिए यीशु के प्रतिउत्तर से पता चलता है कि प्रभावशाली प्रार्थना सिखाई जा सकती है।
इस प्रार्थना में प्रभु यीशु ने लम्बी-लम्बी प्रार्थना तथा प्रार्थना में सुंदर भाषा के लिए प्रोत्साहित नहीं किया है। यह एक संक्षिप्त, साधारण और सरल प्रार्थना है। बल्कि यह इतनी संक्षिप्त है कि बहुत से मसीहियों ने इसे जुबानी याद करके इसे अपनी व्यक्तिगत दैनिक प्रार्थना का हिस्सा बना दिया है।
इस प्रार्थना को किसी मशीन या रोबोट के समान दोहराते रहने से इसके शब्दों में छिपे अर्थ को समझना ज्यादा जरूरी है। प्रभु यीशु के शिष्यों के निवेदन से प्रभु यीशु ने उन्हें ये प्रार्थना नमूना दिया जिसे “प्रभु की प्रार्थना” के रूप में जाना जाता है। इस प्रार्थना को “शिष्यों की प्रार्थना” कहना ज्यादा उचित होगा। क्योंकि यह प्रार्थना आज भी प्रभु यीशु के अनुयायियों का मार्गदर्शन करने के लिए एक सिद्ध प्रार्थना है। इसमें इस्तेमाल शब्दों पर गौर करें।
आपने भी इस Prayer को कई बार किया होगा या हर दिन आप इस प्रार्थना को करते होंगे। पर मसीह में मेरे प्रिय, क्या आप इस प्रार्थना को इसमें इस्तेमाल हुए शब्दों के अर्थ समझते हुए करते हैं? या फिर कई लोगों की तरह ये प्रार्थना आपके जीवन में भी औपचारिकता को पूरा करना है?
मैं क्यों इस प्रकार से कह रहा हूं? क्योंकि मैंने इस बात को अनुभव किया है कि बहुत बार कई मसीही लोग भी बिना अर्थ समझते हुए कई चीजों को करते हैं। कई बार मसीही लोग गीतों को भी ऐसे ही गाते हैं, अर्थात बिना मतलब समझते हुए। और कई बार सेवक लोग भी ऐसे ही प्रचार करते हैं अर्थात बिना लागूकरण के।
मेरे प्रिय, औपचारिकता (Formality) पूरा करना मायने नहीं रखता है पर मायने रखता है लागूकरण। काफी सालों तक मैंने भी इस प्रार्थना को बिना अर्थ जाने हुए किया है।
तो फिर सवाल ये उठता है कि हम प्रार्थना कैसे करें? हमें इस प्रार्थना को इसके एक-एक शब्द का अर्थ समझते हुए करना है। आइए इस प्रार्थना में छिपे हुए भेदों को जानने का प्रयास करें।
हे हमारे पिता।
जब आप इस शब्द को कहते हैं तो क्या हम उस रिश्ते को यहां पर पाते हैं जो कि पिता और पुत्र का होता है? इस प्रभावशाली प्रार्थना की शुरुआत एक संबंध से होती है। एक मसीही जन प्रार्थना में जिससे बात करता है वह अज्ञात नहीं होना चाहिए। (यूहन्ना 4:22) जब प्रभु यीशु ने यह आदर्श प्रार्थना शुरू की तो उसने परमेश्वर को पिता नाम से संबोधित किया जो कि एक संबंध को दर्शाता है।
शायद आप भी मेरे साथ सहमत होंगे, जब हम अपने मसीही जीवन से पहले परमेश्वर से प्रार्थना करते थे तो ऐसा प्रतीत होता था कि वो तो हमसे कोसों दूर है। पर परमेश्वर का धन्यवाद हो वो तो हमारा स्वर्गीय पिता है जो हमसे बेहद प्रेम करता है। उसने हमें इसलिए बनाया है कि हम उसके साथ संगति का आनंद लें। उसने हमें एक सबंध में होने के लिए बनाया है। कितनी नजदीकी है ना? कितना अच्छा लगता है जब आपको मालूम होता है कि स्वर्ग और पृथ्वी का कर्ता आपका आत्मिक पिता है।
परमेश्वर को सृष्टि की सबसे बड़ी शक्ति या सृष्टि का स्वामी संबोधित करना एक बात है, परन्तु उसकी शक्ति तथा प्रभुत्व कम किए बिना उसे पिता पुकारना दूसरी बात है। सृष्टिकर्ता परमेश्वर अपने बच्चों का उसी प्रकार स्वागत करता है, जैसे कि पिता अपने पुत्र का स्वागत करता है और प्रार्थना करते हुए हमारे लिए यह एक बड़ी खुशखबरी है।
जब हम अपने पिता से बात करते हैं तो हम ऐसे व्यक्ति से बात कर रहे होते हैं, जो हमसे बेहद प्रेम करता है और वह हमारी चिंता करता है।
वह हमारा पिता है इसलिए वह हमसे इतना प्रेम करता है कि हमें अनुशासित भी करना चाहता है। उसे हमें अनुशासित करने का पूरा अधिकार है। (नीतिवचन 3:11-12) वचन हमें यह याद दिलाता है कि अनुशासन, पिता के प्रेम का एक कार्य है। हालांकि अनुशासन आमतौर पर अच्छा नहीं लगता है, परन्तु प्रेमी पिता का बुद्धिमानी से भरा अनुशासन हमारे संबंध को पुनर्स्थापित करता और मजबूत बनाता है।
हम जो कि एक मसीही हैं, अथेने के लोगों के समान किसी अनजान से प्रार्थना नहीं करते हैं बल्कि अपने आत्मिक पिता से करते हैं। (प्रेरितों 17:22-31)
आप जो स्वर्ग में है।
इसका ये अर्थ नहीं है कि वो सिर्फ स्वर्ग में है। उसका वचन हमें बताता है कि वो स्वर्ग और पृथ्वी का सृजनहार है। सब उसी का है जगत और उसमें निवास करने वाले भी। इससे उसकी सार्वभौमिकता नजर आती है। उसकी सर्वोच्चता दिखती है। वो हाथ के बनाए हुए मंदिरों में नहीं रहता है। बल्कि उसके वचन के अनुसार हम उसके मंदिर है। वो सनातन परमेश्वर है।
आपका नाम पवित्र माना जाए।
परमेश्वर हमारा पिता होने से उसकी पवित्रता की वास्तविकता कम नहीं होती है। एक बार मैं यशायाह 6 अध्याय पढ़ रहा था तो वहां एक दर्शन में स्वर्गदूतों को परमेश्वर को पवित्र, पवित्र, पवित्र कहते हुए पाते हैं। उसके बाद मैं भी प्रार्थना करने लगा कि हे तिगुना पवित्र परमेश्वर! वास्तव में यहां परमेश्वर को तीन बार पवित्र पवित्र कहा गया है। मैंने काफी समय तक ऐसे ही प्रार्थना किया।
पर वचनों का अध्ययन करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मेरा इस प्रकार से प्रार्थना करना गलत था क्योंकि मैं परमेश्वर की पवित्रता के लिए एक सीमा बांध रहा था। वास्तव में वो परमेश्वर अति पवित्र है, उसके जैसा दूसरा कोई है ही नहीं। वो पवित्र था, है और भविष्य में भी रहेगा। सारी मानवजाति में उसका नाम पवित्र माना जाए।
आपका राज्य आए।
अधिकतर मसीहियों को परमेश्वर को सर्वश्रेष्ठ राजा स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं है। उन्हें यह एहसास भी है कि आज बहुत से लोग उस राजा के अधिकार और अधीनता में आने से कतराते हैं। वह ऐसा राजा है जिसका राज्य अभी पूर्ण रीति से आना बाकी है। (इब्रानियों 2:5-9)
कल्पना करें कि जिस संसार में आप रहते हैं, यदि प्रभु को इसका राजा स्वीकार कर लिया जाता तो यह संसार किस तरह का होता? क्या फर्क होता? लोगों का व्यवहार और कामों का रवैया, वर्तमान व्यवहार और कामों से कैसे भिन्न होता? परमेश्वर के राज्य आने के लिए प्रार्थना करने का अर्थ यह प्रार्थना करना है कि सृष्टि के वे पहलू जो परमेश्वर के विद्रोह में है उसे सर्वश्रेष्ठ राजा के रूप में स्वीकार करें।
परमेश्वर का राज्य आने के लिए प्रार्थना करने से पहले यह स्वीकार करने की आवश्यकता है कि परमेश्वर राजा है। यदि कोई व्यक्ति प्रभु को अपने जीवन पर अधिकार देने से हिचकिचाता है तो यह प्रार्थना करना कि “तेरा राज्य आए” एक घटिया ढोंग होगा।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही है जो मनुष्य के राज में भी प्रभुता करता है। कोई भी परमेश्वर को ये बोलने का अधिकार नहीं रखता है कि ये तूने क्या किया है? सब कुछ परमेश्वर के नियंत्रण में है। क्योंकि वो राजाओं का राजा और प्रभुओं का प्रभु है। उसका राज्य, शांति का राज्य है। वो ही हमारे जीवन में राज करे।
आपकी इच्छा पूरी हो।
इस दुनियां में मनुष्य के अलावा सभी चीजें और जीव-जंतु परमेश्वर की इच्छा को पूरी कर रहे हैं। जब कि परमेश्वर के द्वारा सारी चीजों की सृष्टि हुई है। उसकी इच्छा स्वर्ग में पूरी हो रही है। बस पृथ्वी पर हम इंसान ही हैं जो परमेश्वर की इच्छा को पूरी करने में नाकाम रहे हैं।
मेरे प्रियो, हमें परमेश्वर ने बनाया है तो बनाने वाले ने हमें अपने उद्देश्य के लिए बनाया है। हम जिस उद्देश्य के लिए बनाए गए हैं उसके पीछे जो परमेश्वर की मनसा है वो पूरी होनी चाहिए। फ़र्ज़ करें कि आपने दूसरे व्यक्ति से बात करने के लिए मोबाइल फोन का आविष्कार किया है और मोबाइल फोन अपने कार्य को करता ही नहीं है जबकि उसमें ये क्षमता है तो आपको उसको बनाकर क्या फायदा हुआ जबकि उसने तो आपकी मनसा को पूरा किया ही नहीं।
हम परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करके जान सकते हैं कि परमेश्वर की क्या इच्छा है? और आप इस बात से तो अवगत होंगे कि परमेश्वर ये चाहता है कोई भी नाश ना हो बल्कि अनंत जीवन प्राप्त करे। और परमेश्वर की यही इच्छा है कि जैसे वो पवित्र है, हम भी पवित्र बने। और परमेश्वर की यह भी इच्छा है कि इस दुनियां में नमक और ज्योति बन कर रहें।
हमारे दिनभर की रोटी आज हमें दे।
बहुत से लोग प्रार्थना का आरम्भ अपनी आवश्यकताओं का उल्लेख करते हुए करते हैं। कई बार ये आवश्यकताएं ही व्यक्ति को परमेश्वर से प्रार्थना करने के लिए प्रेरित करती हैं। प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को प्रार्थना के द्वारा अपनी जरूरतों को परमेश्वर के सामने रखने को कहा। यह काफी अच्छा है क्योंकि जो सर्वश्रेष्ठ राजा है, वहीं हमारी जरूरतों को पूरा करने का स्त्रोत भी है।
प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को इस बात के लिए भी उत्साहित किया के वे भोजन, जल, वस्त्रों जैसी मूलभूत आवश्कताओं की चिंता ना करें। (मती 6:25-34) प्रभु यीशु ने उन्हें याद दिलाया कि वे परमेश्वर की दृष्टि में मूल्यवान हैं, तथा परमेश्वर उन्हें प्रेम करते हैं। यीशु ने उन्हें इस बात से भी अवगत करवाया कि स्वर्गीय पिता पहले से ही उनकी आवश्यकताओं को जानता है।
तो फिर प्रभु से प्रार्थना करने की जरूरत क्यों है जब वो हमारी आवश्यकताओं को पहले से ही जानता है? शायद इसलिए कि परमेश्वर का संतान होने के नाते मुझे पूरा अधिकार है कि मैं अपनी जरूरतों और चिंताओं को प्रभु के समक्ष साझा करूं। क्योंकि हमने पहले भी बात कर लिया है कि एक संबंध में बातचीत होना आवश्यक है।
पिता परमेश्वर ही हमारी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करता है। वह प्रावधान करने वाला परमेश्वर है। हमें सांसे, काम करने की सामर्थ और योग्यताएं उसी से मिलती है। उसे मालूम है कि हमारी दैनिक आवश्यकताएं क्या हैं। फिर भी प्रभु चाहते हैं कि हममें प्रभु पर प्रतिदिन की निर्भरता पाई जाए।
इस दुनियां में रहते हुए इंसान आज ना सिर्फ अपनी बल्कि अपनी आने वाली पीढ़ियों के बारे में भी प्रावधान करके रख रहा है। इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है यदि हम अनंतकाल के जीवन को भूलें ना। कभी-कभी इंसान तो उस धनवान मूर्ख के जैसा सोचने लग जाता है कि हमारी सांसे भी शायद हमारे धन सम्पत्ति से चलती हैं। (लूका 12:13-21)
हमारे अपराधों को क्षमा करें।
कुछ लोगों के लिए अपने पाप के विषय में बात करना कठिन होता है। बहुत से लोग आज भी अपनी असफलताओं के विषय में बात करने से अपनी सफलता के विषय में बात करना ज्यादा पसंद करते हैं। परंतु जब पाप तथा परमेश्वर के साथ हमारे संबंध की बात आती है तो पाप के विषय बात ना करना सही चुनाव नहीं है।
प्रभु यीशु ने हमें प्रोत्साहित किया कि हम अपने पापों का अंगीकार करते हुए परमेश्वर से क्षमा मांगे। अंगीकार हमें उद्धार तक पहुंचाने वाली प्रक्रिया का आवश्यक हिस्सा है। अपने पापों को परमेश्वर से छिपाना या अनदेखा करना मूर्खता है। क्योंकि ऐसा करने से प्रभु के साथ हमारे प्रगतिशील संबंध के मार्ग में रुकावट पैदा होगी, जो कि मसीही जीवन का केंद्र है।
अंगीकार ना किया हुआ पाप प्रभु के साथ हमारी बातचीत में रुकावट बनता है। (यशायाह 59:2) परमेश्वर क्षमा करने वाला परमेश्वर है। उसने हमारे अपराधों को हमसे इतना दूर किया है जितना कि उदयाचल से अस्ताचल दूर है।
यदि हम अपने पापों को मान लें तो परमेश्वर हमारे पापों को क्षमा करने में विश्वासयोग्य है। प्रभु यीशु ने हमारे ही अपराधों के कारण क्रूस का दर्दनाक दुःख सहा ताकि वो हमें ना सहन करना पड़े और हम विश्वास के द्वारा छुटकारा ग्रहण कर लें। पर आप भी अपने अपराधियों के अपराधों को क्षमा कर दें। क्योंकि प्रभु चाहते हैं कि हम भी उन्हें क्षमा करें। (मती 18:21-35)
हमें बुराई से बचा।
हम एक पापी संसार में रहते हैं जो कि एक खतरनाक स्थान है। हम कभी भी पाप के प्रभाव तथा परमेश्वर को त्याग देने की परीक्षा से सुरक्षित नहीं है। यहां तक कि प्रभु यीशु को भी परीक्षा का सामना करना पड़ा। बाइबल में शैतान के द्वारा यीशु के परीक्षा करने के लिए किए गए तीन प्रयास दर्ज हैं, हो सकता है कि इनके अतिरिक्त उसने और भी प्रयास किए हों जिनके विषय में बाइबल में बताया नहीं गया है।
प्रत्येक परीक्षा का उत्तर यीशु ने वचन के द्वारा दिया। यीशु को इस परीक्षा में पिता ने नहीं डाला था, बल्कि पिता ने तो अपने वचन के द्वारा उसे इसमें से बाहर निकाला। जब तक हम इस संसार में है जो कि पाप से भरा हुआ है, हमें भी परीक्षा का सामना करना ही पड़ेगा। पर प्रभु का धन्यवाद हो कि वह परीक्षा में से निकालना जानता है। (1 कुरिंथियो 10:13)
सच्ची सुरक्षा केवल परमेश्वर से ही मिलती है। वो घर को बनाने वाला परमेश्वर है वो रक्षा करने वाला परमेश्वर है। भजनकार इस बात को जानता था इसलिए वो कहता है कि किसी को तो रथों का और किसी को घोड़ों का भरोसा है परन्तु हम तो अपने परमेश्वर का ही नाम लेंगे। आप जानते ही हैं कि किस प्रकार परमेश्वर ने इजरायलियों को सुरक्षा प्रदान किया है।
आज तक परमेश्वर ने अपने लोगों को सुरक्षा दिया है। वो ही परमेश्वर हमें बुराई से भी बचाएगा, चाहे हम घोर अंधकार से भरी हुई तराई में होकर क्यों ना चलें। वो हमारी अगुवाई करेगा और सुरक्षा देगा। (भजन 23)
क्योंकि राज्य, पराक्रम और महिमा उसी के हैं।
जब हम प्रार्थना के माध्यम से परमेश्वर के साथ बातचीत करते हैं तो हम एक ऐसे व्यक्तित्व से बात कर रहे हैं जो कि और किसी से भी अधिक महिमा के योग्य हैं। इसलिए प्रभु के साथ बातचीत करते हुए हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम प्रभु को, जो महिमा के योग्य है महिमा दें और अपनी आराधना उस अर्पित कर दें।
आशा है कि आप समझ गए होंगें कि हमें प्रार्थना को करते हुए किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए। हर बार जब आप इस प्रार्थना को दोहराते हैं तो थोड़ा समय इन शब्दों की गहराई में जाने के लिए भी निवेश करें क्योंकि आखिरकार आप अपने स्वर्गीय पिता से बात कर रहे हैं जो कि औपचारिकता तो बिलकुल भी नहीं हैं। बल्कि ऐसा करने से आप पिता परमेश्वर के साथ और घनिष्ठता अनुभव करेंगे।
शालोम