मसीही शिष्यता क्या है? (What is Christian Discipleship?) कैसे एक मसीही शिष्य को पहचाने? Discipleship या शिष्यता क्या है? – सच्ची शिष्यता उस वक़्त शुरू होती है जब मनुष्य का नया जन्म होता है। (2 Corinthians 5 :17) यानि जब वह मान लेता है कि परमेश्वर के सम्मुख वह एक पापी है, वह खोया हुआ है। यह एक गंभीर समर्पण है, ना केवल किसी भी प्रकार के भौतिक वस्तुओं के अधिकार का परंतु शिष्यता, प्रतिष्ठा और संबंधों की भी मांग करता है।
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सर्वप्रथम स्वयं के लिए इस प्रकार से प्रार्थना करनी चाहिए। – हे प्रभु मेरी आंखें खोल दीजिए। (2 Corinthians 4:4) प्रभु हमें भी दूसरे स्पर्श की आवश्यकता है (Mark 8:25) हमारे आंखों में से भी छिलके गिरने हैं। (Acts 9:18)
जब वह व्यक्ति यह स्वीकार कर लेता है कि वह अपने धर्म-कर्म अथवा सदाचार के द्वारा मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। जब वह यह विश्वास कर लेता है कि प्रभु यीशु मसीह ने उसके पापों के प्रायश्चित के लिए अपने प्राण दिए। जब वह यह दृढ़ विश्वास कर लेता है कि प्रभु यीशु मसीह एकमात्र प्रभु उद्धारकर्ता है।
यही वह अनुभव है जिसके द्वारा मनुष्य मसीही बनता है। आरंभ में ही इन बातों को भलीभांति समझ लेना चाहिए। इसके पहले कि आप मसीही जीवन बिताने के योग्य हो आपके लिए मसीही बनना अनिवार्य है। यानि की प्रभु यीशु के ऊपर विश्वास करना और अपने पापों को स्वीकार करना।
Disciple या शिष्य की परिभाषा।
मसीहियत में शिष्यत्व किसी को मसीह के समान बनाने की प्रक्रिया है। यीशु का शिष्य हर चीज में यीशु जैसा बनना है। यीशु के संसार में आने का प्राथमिक उद्देश्य उसकी मृत्यु के द्वारा परमेश्वर के राज्य की स्थापना करना था। यही उद्देश्य प्रभु यीशु के शिष्य का भी होना चाहिए।
शिष्य वह जो अपना त्याग करके किसी दूसरे को समर्पित करते हैं। वह जो मसीह को अपना निजी उद्धारकर्ता मानते हैं। वह जो मसीह को अपनी जिंदगी बना देते हैं। वह जो अपना इनकार करते हैं। एक मसीही शिष्य एक विश्वासी है, जो मसीह का अनुसरण करता है और फिर दूसरों के अनुसरण के लिए एक उदाहरण पेश करता है। (1 कुरिन्थियों 11: 1) एक शिष्य पहला विश्वासी होता है जिसने विश्वास का प्रयोग (exercised) किया है। (प्रेरितों के काम 2:38)
यदि आपने अभी तक प्रभु यीशु को अपना प्रभु उद्धारकर्ता के रूप में ग्रहण नहीं किया है तो अब ग्रहण कर लीजिए। साथ ही साथ यह दृढ़ निश्चय कीजिए कि आपको इसका कितना भी मूल्य क्यों ना चुकाना पड़े, आप सदा उसकी आज्ञा का पालन करते रहेंगे।
एक शिष्य का लक्ष्य क्या है?
- मूल्यों को पहचानना।
- समर्पण
- मसीह की शिक्षाओं के साथ मसीह के चेले होने से, मसीह की चुनौतियों को स्वीकार करना।
बाइबिल के आधार पर शिष्य बनाने के सिद्धांत।
- मसीह ने अपने चेलों के साथ समय बिताया। (Mark 3:13-15)
- प्रभु यीशु मसीह ने उन्हें उदाहरण दे देकर समझाया।
- प्रभु यीशु मसीह ने उनके बीच में खुद कार्य करके दिखाया।
- प्रभु यीशु मसीह अपने चेलों की देखरेख करते थे।
शिष्यता के विशेष गुण | शिष्य के कर्तव्य
शिष्यता के विशेष गुण | शिष्य के कर्तव्य |
प्रेम, देखभाल | परमेश्वर के वचन का मनन करना अर्थात रात दिन उस पर ध्यान करना। |
वफादारी | प्रार्थना के द्वारा परमेश्वर के साथ बातचीत करना। |
आज्ञाकारिता | सहभागिता। |
समर्पण | सेवा करना। |
परिपक्वता | प्रवचन या नैतिक उपदेश देना। |
प्रार्थना | गवाही देना |
Kingdom Mindset | समझौता ना करना। |
मसीह के पद चिन्हों पर चलना। | सुसमाचार का प्रचार करना। |
प्रतिदिन क्रूस को उठाकर चलना। | प्रभु यीशु के शिष्य बनाना। (Matthew 28:18-20, Acts 2:42, 8:26-40) |
शिष्यता का उद्देश्य और व्यवहार।
Discipleship मुख्य रूप से परमेश्वर के इर्द-गिर्द घूमने वाली बातों से प्रेरित होना है ना की किसी व्यक्ति की जिंदगी और विचारों से प्रभावित होना। उसकी कृतज्ञता परमेश्वर के अनुग्रह द्वारा माफी के प्रति हो और मसीह की समानता में प्रतिदिन उत्तरोत्तर बढ़ना।
दुनियां और शिष्य। (Matthew 5:13-16)
शिष्य संसार का नमक है : प्रभु यीशु ने कहा तुम पृथ्वी के नमक हो परंतु यदि नमक का स्वाद बिगड़ जाए तो फिर किस वस्तु से उसे नमकीन किया जाएगा, फिर किसी काम का नहीं है। नमक जो कि अपने आप में अद्वितीय है, नमक का कोई दूसरा Alternative भी नहीं है।
नमक की जरूरत सभी को होती है, एक शिष्य को पवित्रता में जीवन जीना है, उसे अपने में स्वाद रखना है, उसे दूसरों को भी सुरक्षित रखना है क्योंकि नमक खाद्य पदार्थ को लंबे समय तक Preserve रखता है।
नमक आसानी से उपलब्ध होता है, नमक सस्ता होता है। जब प्रभु यीशु मसीह अपने शिष्य को पृथ्वी का नमक कहा तो उनके कहने का मुख्य तात्पर्य यही था कि प्रभु यीशु मसीह के अनुयायी या शिष्य अद्वितीय है। उन्हें पवित्र जीवन जीना है, उनको आसानी से दूसरों के लिए उपलब्ध होना है क्योंकि वे Unique है।
प्रभु यीशु मसीह ने कहा तुम जगत की ज्योति हो। प्रभु यीशु के शिष्य रोशनी है जो संसार के अंधकार को मिटाता है।
शिष्यता की शर्तें।
प्रभु यीशु मसीह को अपना संपूर्ण जीवन समर्पण करना ही सच्ची शिष्यता है। हमारे उद्धारकर्ता की दृष्टि ऐसे पुरुष अथवा स्त्री की खोज में नहीं है, जो उसकी सेवा में केवल अपनी निठल्ली संध्या या साप्ताहिक छुट्टी के दिन अथवा नौकरी के अवकाश ग्रहण करने के बाद सर्वस्व अर्पण करें। वह ऐसे लोगों को खोजता है, जो अपने जीवन में उसे ही सर्वप्रथम स्थान देने को तैयार हैं।
हमेशा की तरह आज भी उसे खोज है ऐसे स्त्री पुरुषों की जो व्यक्तिगत रूप से निष्ठा और आत्म त्याग कर अनुसरण करने को तत्पर हैं। प्रभु को ऐसे ही शिष्यों की आवश्यकता है। ऐसे शिष्यों की तरह नहीं जो भीड़ की तरह निरुद्देशय से उसका अनुसरण करते हैं।
- प्रभु यीशु के प्रति सर्वाधिक प्रेम : यीशु ने कहा कि यदि कोई मेरे पास आता है और अपने माता-पिता पत्नी और बच्चों और भाइयों-बहनों वरन अपने प्राण को भी अप्रिय ना जाने तो वह मेरा चेला नहीं हो सकता और जो कोई अपना क्रूस ना उठाएं और मेरे पीछे ना आए वह भी मेरा चेला नहीं हो सकता। (Luke 14:26-27) आप किससे सर्वाधिक प्रेम करते हैं?
- स्वार्थ परित्याग : यदि कोई मेरे पीछे आना चाहे तो अपने आप का परित्याग करें। (Matthew 16:24)
- क्रूस का चयन : यदि कोई मेरे पीछे आना चाहे तो अपने आप का इंकार करें और अपना क्रूस उठाए और मेरे पीछे हो ले। (Matthew 16:24)
शिष्यता के चिन्ह।
जीवन ख्रीष्टानुसार या फलवंत जीवन।
परमेश्वर का वचन स्पष्ट रीति से बताता है कि जैसा यीशु मसीह का स्वभाव था वैसा ही तुम्हारा भी हो। प्रभु यीशु मसीह का जीवन कैसा था? उसका स्वभाव कैसा था? या उसका आचरण कैसा था? प्रभु यीशु मसीह ने आज्ञाकारी जीवन जीया, वह पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से परिपूर्ण था, वह दूसरों की निस्वार्थ सेवा करता था, वह दुष्ट और अत्याचारियों के मध्य सेवा कर रहा था, बहुत भेदभाव नहीं किया करता था, वह उत्साह, आत्मसंयम, नम्रता, दयालुता, विश्वासयोग्यता और भक्ति का जीवन जीता था।
उसके शिष्य होने के लिए आवश्यक है कि हम उसके पद चिन्हों पर चलें। हममें आत्मिक फल का प्रदर्शन होना चाहिए। मेरे पिता की महिमा इसी से होती है कि तुम बहुत सा फल लाओ तब ही तुम मेरे चेले ठहरोगे। (John 15:8, Galatians 5:22-23)
विश्वासियों से यथाशक्ति प्रेम।
यदि तुम एक दूसरे से प्रेम रखोगे तो इसी से सब जानेंगे कि तुम मेरे शिष्य हो। (John 13:35) प्रेम ही है जो दूसरों को अपने से उत्तम समझता है, प्रेम ही है जो अनेक अपराधों को ढांपता है, प्रेम ही दयालु, सहनशील बनाता है, ईर्ष्या नहीं करता, अहंकार नहीं करता, प्रेम अभद्र व्यवहार नहीं करता, अपना स्वार्थ नहीं खोजता, झुंझलाता नहीं, बुराई का लेखा नहीं रखता, प्रेम सब बातों का विश्वास करता है, प्रेम सब बातों की आशा रखता है, प्रेम सब बातों में धैर्य रखता है। (1 Corinthians 13)
मसीह के वचन में स्थिरता।
यदि तुम मेरी वचन में बने रहोगे तो सचमुच मेरे चेले ठहरोगे। (John 8:31) सच्ची शिष्यता के लिए वचन में बने रहना आवश्यक है। (Luke 9:62)
प्रभु यीशु मसीह के Disciples इसलिए आसानी से नहीं पहचाने जाएंगे कि उन्होंने लाल रंग या हरे रंग की टी-शर्ट पहनी है, जिस पर स्वर्ग का चिन्ह छपा हुआ है परंतु वे इस बात से पहचाने जाएंगे कि उनके जीवन से प्रभु के साथ प्रगतिशील संबंध का प्रत्यक्ष प्रमाण दिखाई देता है यीशु के द्वारा बताए गए Discipleship के प्रत्यक्ष चिन्ह आज्ञाकारिता, प्रेम और फलवंतता– इन्हीं चिन्हों से दूसरों को पता चलेगा कि हम प्रभु यीशु मसीह के सच्चे Disciples हैं।
शालोम