जीवन के मुश्किल समय में क्या करें? (King Jehoshaphat)

जीवन के मुश्किल समय में क्या करें? (What Should We Do In The Hard Times?) राजा यहोशापात से सबक। (King Jehoshaphat) इस सवाल ने कभी न कभी आपको सोचने पर मजबूर किया होगा। जहाँ तक मेरा मानना है कि जीवन के मुश्किल दौर हर एक इंसान के जीवन में जरुर आते हैं, इस यात्रा को आप चाह कर भी स्किप नहीं कर सकते हैं पर सवाल ये भी है कि क्या हम इस यात्रा के लिए तैयार होते हैं?

बाइबल कभी वायदा नहीं करती है कि हम कठिन समय या मुश्किल स्थितियों का सामना नहीं करेंगे। लेकिन यह ऐसे समय में हमें परमेश्वर की सामर्थ और अनुग्रह का वायदा जरूर करती है।

जब कभी आपके जीवन में मुश्किल समय (Hard Times) आए और किसी से भी बातें करने का मन न करे, और आपका भरोसा सब के ऊपर से टूट जाए और आपको लगे कि कोई आपको नहीं समझता है। (इसमें हम कई बार Negative सोच बैठते हैं जबकि दूसरे को भी लगता है कि उसे कोई नहीं समझ रहा है, हमें Positive सोचना जरुरी है)

और आपको लगे कि अब सब कुछ खत्म हो गया है तो कृपया अपनी आशा को परमेश्वर प्रभु यीशु पर लगाएं वो आपको कभी धोखा नहीं देगा, न आपको कभी छोड़ेगा, न आपकी आशा को टूटने देगा, न आपको कभी लज्जित होने देगा, और साथ में हमें हमेशा ये भी याद रखना है कि हम सब संसार में रहते है एक ऐसे संसार में जहाँ हर कोई सिर्फ अपने बारे में ही सोचता है।

जीवन के मुश्किल समय में क्या करें? (King Jehoshaphat) (What Should We Do In The Hard Times?)
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मुश्किल समय में ये उत्तम है कि हम परमेश्वर के पास आएं और उसके ऊपर विश्वास करें और अपने जीवन में उसको आमन्त्रित करें, क्योंकि उसका वादा है कि वो सदैव आपके साथ रहेगा, कभी भी आपको न छोड़ेगा, न धोखा देगा। उसने कहा है कि “तुम्हें मुझमें शांति मिले”, ऐसे समय में भी हम प्रभु की शांति को महसूस कर सकते हैं। (यूहन्ना 16:33)

जी हाँ, संसार में हमें क्लेश होता है, कठिनाई होती है, संघर्ष होता है और प्रभु यीशु इस बात को जानते थे इसलिए उन्होने अपने शिष्यों को इस बात से पहले ही अवगत करा दिया था हमें सच्ची शांति केवल उसी में मिल सकती है।

उन्होंने पहले ही बता दिया था कि संसार बैर रखता है। (यूहन्ना 15:18-19) इसलिए उसने हमें अपनी शांति दी है। बस हमें न तो डरना है और न व्याकुल होना है। (यूहन्ना 14:27)

अब बात करते हैं कि मुश्किल समय में शांति और विश्राम कैसे मिलता है? नीचे दी गई बातों पर विचार करें :-

  • पूरे हृदय से परमेश्वर के पीछे हो लीजिए।
  • पूरी तरह से परमेश्वर की आज्ञा मानें।
  • पूरी तरह से परमेश्वर पर निर्भर रहिये।
  • उसकी स्तुति करते रहिए।

पूरे हृदय से परमेश्वर के पीछे हो लीजिए।

इस बारे में परमेश्वर का वचन क्या कहता है? इसके लिए हमें आज्ञा भी मिली है कि हम परमेश्वर से प्रेम रखें। (व्यवस्थाविवरण 6:5) परमेश्वर का भय मानें, और सच्‍चाई से अपने सम्पूर्ण मन के साथ उसकी उपासना करें। (1 शमूएल 12:24) खरा मन न सिर्फ हमें बल्कि दूसरों को भी प्रसन्नता देता है। तब प्रजा के लोग आनन्दित हुए, क्योंकि हाकिमों ने प्रसन्न होकर खरे मन और अपनी-अपनी इच्छा से यहोवा के लिये भेंट दी थी; और दाऊद राजा बहुत ही अनन्दित हुआ। (1 इतिहास 29:9) परमेश्वर चाहता है कि हम पूरे मन से फिरकर उसके पास आएं। (योएल 2:12)

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परमेश्‍वर की कल्पनाएँ जो वो हमारे विषय में करता है, वे हानि की नहीं, वरन कुशल ही की होती हैं, उसका वादा है कि अन्त में वो हमारी आशा को भी पूरी करेगा। पर अवश्य है कि हम उसको पुकारें और प्रार्थना करें वो जरुर सुनेगा क्योंकि उसने वादा किया है। मैं तुम्हारी सुनूँगा तुम मुझे ढूँढ़ोगे और पाओगे भी; क्योंकि तुम अपने सम्पूर्ण मन से मेरे पास आओगे। (यिर्मयाह 29:11-13)


अपने से जरूर एक सवाल पूछे कि क्या कभी मैं उस परमेश्वर के सामने संपूर्ण हृदय से आया हूं? यह बात सच है कि

मनुष्य बाहरी देखता है पर परमेश्वर हमारा मन देखता है।

पूरी तरह से परमेश्वर की आज्ञा मानें

इसमें कभी भी कोई समझौता न करें क्योंकि किसी भी इन्सान से बढ़कर हमें परमेश्वर कि आज्ञा का पालन करना चाहिए क्योंकि यही हमारा कर्तव्य है। (प्रेरितों 5:29) नबी यिर्मयाह भी कहता है कि वो व्यक्ति आशीषित है जो परमेश्वर पर भरोसा रखता है। परमेश्‍वर पर भरोसा रखना और उसको अपना आधार मानना आपके जीवन को अवश्य ही फलवन्त करेगा। (यिर्मयाह 17:7-8)

ये बात हमेशा याद रखना कि Obedience, Optional नहीं है जैसा कि बहुत सारे लोग समझते होंगे। (लूका 6:46-49) यदि हमने यीशु को प्रभु जानकर अंगीकार किया है तो हमें उसको उसका मानना भी जरूरी है। सिर्फ प्रभु-प्रभु कहने से कोई फायदा नहीं होगा इसलिए यीशु मसीह ने कहा है “तुम मुझे प्रभु प्रभु कहते हो और मेरा नहीं मानते हो।”

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इसीलिए उन्होंने एक उदाहरण दिया कि जो कोई भी मेरी बातें सुनता है और उन पर चलता है वह ऐसे बुद्धिमान व्यक्ति के समान है जिसने अपना घर चट्टान पर नींव खोद कर बनाया। आंधी आया, तूफान आया पर घर नहीं गिरा और सच में यही बात उस व्यक्ति के लिए संभव है, जिस व्यक्ति ने यीशु को प्रभु माना है। चाहे उसके जीवन में आंधी आए या तूफान आए वह न डगमगाएगा और न नाश होगा।

आज्ञाकारिता, अंगीकार की नीव है, अगुवों की माने क्योंकि लिखा है कि जो तुम्हारी सुनता है वह मेरी भी सुनता है।


अपने आप से पूछे कि क्या मैं सुनकर मानने वाला हूँ?

पूरी तरह से परमेश्वर पर निर्भर रहिये

जैसे एक भेड़ अपने चरवाहे पर अपनी सुरक्षा, पोषण और मार्गदर्शन के लिए निर्भर रहती है जैसे डालियाँ दाखलता पर निर्भर रहती हैं। हम उसके बगैर कुछ भी फल नहीं ला सकते। याद रखिए वैसे भी हमें कलम (Graft) किया गया है।

जी, हमें यही करना चाहिए, पूरे हृदय से परमेश्वर के पीछे हो लीजिये, उस पर विश्वास करें क्योंकि अब इब्रानियों का लेखक कहता है, “विश्वास के बिना परमेश्वर को प्रसन्न करना असंभव है।” अतः जो कोई भी प्रभु के पास आता है, उसको विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर है और अपने खोजने वालों को प्रतिफल देता है। कोई दोगलापन नहीं, कोई दिखावा नहीं, सब कुछ परमेश्वर के हाथ में सौप दें और यदि हम ऐसा नही करेंगे तो हम अपना ही नुकसान करेंगे।

परमेश्वर हमारे मन को देखता है जिससे परमेश्वर ये जान सकता है कि हमारे मन में क्या है या हम उस पर कितना निर्भर हैं। यदि हमारा मन उसकी ओर निष्कपट रहता है तो वह हमारी सहायता करने में हमेशा तत्पर रहता है। (2 इतिहास 16:9)

आइए परमेश्वर के वचन में से कुछ उदाहरण देखें कि क्यों जरुरी है उस पर निर्भर रहना:-

उस समय हनानी दर्शी यहूदा के राजा आसा के पास जाकर कहने लगा, ‘तू ने जो अपने परमेश्वर यहोवा पर भरोसा नहीं रखा इसलिए तू परेशानी में है। (2 इतिहास 16: 7-9) जो कुछ आप करते हैं उसे परमेश्वर देखते हैं। वह उन लोगों को खोज रहे हैं जिनका ‘हृदय’ ‘पूरी तरह से उनके प्रति कटिबद्ध है। ‘परमेश्वर की नजरे’ आपके हृदय में देखती हैं। क्या आप उनके लिए अपने पूरे हृदय से जी रहे हैं?

राजा आसा, जिसने जीवन भर बहुत अच्छा काम किया था, पिछले वर्षों में “अपनी बीमारी में भी उसने परमेश्वर से सहायता की खोज नहीं की बल्कि केवल वैद्यों से सहायता मांगी।” (2 इतिहास 16:12) वैद्यों से सहायता माँगने के कारण उनकी आलोचना नहीं की जा रही है बल्कि परमेश्वर से सहायता न मांगने के कारण उनकी आलोचना की जा रही है।

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उनका पुत्र, यहोशापात का हृदय परमेश्वर के मार्ग पर लगा हुआ था। (2 इतिहास 17:6) उन्होंने अच्छी शुरुवात की। ( 2 इतिहास 17:3-6)

इस तथ्य के द्वारा उसकी परीक्षा हुई कि 400 भविष्यवक्ताओं में सभी में ‘एक झूठ बोलने वाली आत्मा समा गई थी।’ (2 इतिहास 18:21) केवल इम्ला का पुत्र, मीकायाह ने सच कहा। शैतान धोखा देता है। ऐसे एक युग में जहाँ पर सुनने के लिए आवाजों की कमी नहीं। हमें परमेश्वर की बुद्धि की आवश्यकता है कि धोखे में नहीं फंसें बल्कि सावधानी से उन लोगों की बातें सुनें, जो मीकायाह की तरह कहते हैं, कि जो कुछ मेरे परमेश्वर कहें वही मैं भी कहूँगा। (2 इतिहास 18:13)

आप अपने जीवन में कौन से युद्ध का सामना कर रहे हैं? यहोशापात को अपनी लड़ाई लड़नी थी। उसे अनेक “नीयों” का सामना करना पड़ा – मोआबियों, अम्मोनियों और मूनियों’। 

यहोशापात परमेश्वर के मार्ग पर चला, और उससे न मुड़ा, अर्थात जो यहोवा की दृष्टी में ठीक है वह वही करता रहा। (2 इतिहास 20:32) फिर भी उसे युद्ध का सामना करना पडा। आप अपने जीवन में मुसीबतों का सामना कर रहे हैं। हम अक्सर जिंदगी में परेशानियों का सामना इसलिए करते हैं, ताकि हम परमेश्वर के नजदीक आयें, अपने आपको दीन करें।

उसके विरूद्ध एक बड़ी सेना आई। (2 इतिहास 20:2) यहोशापात ने घोषणा की, पूरा राज्य उपवास करेगा और बड़ी संख्या में प्रार्थना मण्डली बुलवाई, यहूदा के सब नगरों से लोगों को प्रार्थना और उपवास में बुलाया गया। (2 इतिहास 20:3-4)

उसने परमेश्वर से प्रार्थना की। उसने परमेश्वर की सामर्थ को पहचाना। और कहा कि तेरा सामना कोई नही कर सकता है। (2 इतिहास 20:6) वह जान गया कि हमारे पास कुछ भी शक्ति नहीं है। इतनी बड़ी सेना के विरोध में लडने के लिए; हमें पता नहीं करें तो क्या करें, लेकिन परमेश्वर हमारी आँखे आप पर लगी हैं। (2 इतिहास 20:12)

परमेश्वर ने भविष्यवक्ता द्वारा अपनी बातों को प्रकट किया। जब वे परमेश्वर के सामने इंतजार कर रहे थे, परमेश्वर का आत्मा उस पर उतर आया। (2 इतिहास 20:14)

परमेश्वर की ओर से सन्देश आया कि मत डरो, युद्ध तुम्हारा नहीं है परमेश्वर का है। (2 इतिहास 20:15) तुम्हें लड़ना न होगा, ठहरे रहना और परमेश्वर की ओर से अपना बचाव देखना। (2 इतिहास 20:17)

यहोशापात ने परमेश्वर को दण्डवत किया। (2 इतिहास 20:18) वे उंचे स्वर से यहोवा की स्तुति करने लगे। (2 इतिहास 20:19) उसने लोगों से कहा, कि परमेश्वर यहोवा पर विश्वास रखो तभी स्थिर रहोगे, तभी भला होगा। (2 इतिहास 20:20)

उन्होंने यह कहकर परमेश्वर की स्तुति की, परमेश्वर की करुणा सदा की है। ( 2 इतिहास 20:21) स्तुति/आराधना एक हथियार है। जैसे उन्होंने स्तुति की, परमेश्वर ने उन्हें छुटकारा और विजय दिलाई। (2 इतिहास 20:22)

उसकी स्तुति करते रहिए

इसके द्वारा हम परमेश्वर के प्रेम को समझते और महसूस करते हैं, उसकी उपस्थिति को महसूस करते हैं और उसकी सामर्थ, उसकी करुणा को पाते हैं। यहोशापात इसे समझते थे, राजा दाऊद इसे अच्छी तरह से समझते थे। स्तुति, आराधना करना विजय देता है, उत्साहित करता है, शांति देता है|

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अब चुनाव आपके हाथ में है खुद से पूछें कि क्या मैं तैयार हूँ?

  • पूरे हृदय से परमेश्वर के पीछे होने के लिये?
  • पूरी तरह से परमेश्वर की आज्ञा मानने के लिये?
  • पूरी तरह से परमेश्वर पर निर्भर होने के लिये?
  • उसकी स्तुति करते रहने के लिये? तब भी जब ये सब करना मेरे लिये मुश्किल हो।

  प्रभु आपको आशीष दे।

  1. संसार हम से प्रेम नहीं करता बल्कि परमेश्वर हम से प्रेम करता है और इसीलिए हमें भी परमेश्वर का सम्मान करना चाहिए उसकी आज्ञा मानना चाहिए और हमें भी परमेश्वर से प्रेम करना चाहिए..

  2. सम्पूर्ण हृदय के साथ प्रभु के पास आना अत्यन्त आवश्यक है।

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Anand Vishwas
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