नामधारी विश्वासी और शिष्य में भिन्नताएं? (Namesake Believer or Disciple?) जानिए एक नामधारी विश्वासी या फिर एक शिष्य में क्या भिन्नताएं होती हैं? वास्तव में बाइबल में जो टर्म यीशु के शिष्यों लिए इस्तेमाल की गई है वो है अनुसरण करने वाले विश्वासी। विश्वासी भी दो प्रकार के हैं एक वे हैं जो उस विश्वास के अनुसार जीते हैं जिसके लिए उन्हें बुलाया गया है अर्थात वो अपने बुलाए जाने के प्रति गंभीर हैं और दूसरे वे हैं जो सिर्फ अपनी इच्छाओं के अनुसार जीते हैं।
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आप इनमें से कौन से हैं? मैं क्यूं इस प्रकार कह पा रहा हूं? क्योंकि दुर्भाग्य से अभी तक इन दोनों में कई लोग भिन्नता को समझ नहीं पाए। अगर आप भी ये समझते हैं कि एक नामधारी विश्वासी, एक शिष्य है तो मैं साफ शब्दों में कह दूं आप इस वक्त गलत हैं। क्योंकि नामधारी विश्वासी सिर्फ विश्वास करते है परन्तु शिष्य अनुसरण करते है। हालांकि जब शिष्यों ने भी मसीही जीवन में अपनी यात्रा शुरू की तो विश्वास के साथ ही शुरुआत किया, परन्तु वे अब अपने विश्वास को अपने कार्यों के द्वारा प्रकट करते हैं।
मेरे प्रिय, इन दोनों में कई भिन्नताएं हैं। उदाहरण के लिए प्रभु यीशु हमेशा भीड़ से गिरे रहते थे, आपको क्या लगता है कि क्या वे सभी प्रभु यीशु के शिष्य थे? तो इसका जवाब है नहीं। क्योंकि उनमें से ज्यादातर लोग तो भौतिक बातों के लिए प्रभु यीशु के पीछे चलते थे। कुछ लोग चंगाई पाने के लिए, कुछ भोजन के लिए, कुछ लोग उनकी गलतियों को ढूंढने के लिए, तो कुछ मार डालने के लिए।
तो फिर आप कैसे पहचानेंगे कि कोई व्यक्ति प्रभु यीशु का शिष्य है? स्वर्गारोहण से पहले प्रभु यीशु ने जो आज्ञा प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को बताई वो तो आप जानते ही हो कि “जाओ सब जातियों के लोगों को चेला बनाओ, उन्हें पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम से बपतिस्मा दो और उन्हें वे सब बातें मानना सिखाओ जो मैंने तुम्हें आज्ञा दी है। देखो मैं जगत के अंत तक सदैव तुम्हारे साथ हूं। (Matthew 28:18-20)
जाहिर सी बात है कि प्रभु अपने शिष्यों से ये उम्मीद रखता है कि वे उस कार्य को पूर्ण करें जिसके लिए यीशु इस जगत में आया था। एक व्यक्ति दूसरे को तभी शिष्य बना सकता है जब वह खुद शिष्यता की इस प्रक्रिया से गुजरा हो। लेकिन एक नामधारी विश्वासी न खुद चेला बनता है और न उसकी शैली वैसी होती है जैसे यीशु चाहते हैं।
प्रेरित की पुस्तक में अर्थात् आरंभिक कलीसिया के दिनों में जब हम देखते हैं कि उन विश्वासियों की, शिष्यों की जीवन शैली कैसी थी। वे प्रतिदिन संगति करते थे, प्रार्थना करते थे, रोटी तोड़ते थे, एक दूसरे की आवश्यकता अनुसार मदद करते थे, सुसमाचार सुनाते थे, प्रतिदिन उनकी गिनती बढ़ती जाती थी और सब उनसे प्रसन्न थे। (Acts 2:38-47) अगर आज हम अपने आप को प्रभु का शिष्य कहते हैं तो किन बातों के आधार पर कहते हैं?
मन फिराकर अनुसरण करने वाले।
एक सच्ची शिष्यता की शुरुआत उस वक्त शुरू होती है जब एक व्यक्ति यीशु को प्रभु मानकर अंगीकार करता है, उसकी संप्रभुता पर विश्वास करता है। उसके अंजाम को जानते हुए वह यीशु के पीछे चलने का निर्णय लेता है। वह जानता है कि शिष्यता कीमत की मांग करती है। वह अपने किए हुए पापों के लिए दुखी है, इसलिए वह अपने पापों से मन फिराकर, अपनी पिछले जीवन शैली को छोड़कर जो पाप के द्वारा प्रेरित थीं, अब यीशु के पीछे चलने का निर्णय लेता है।
शिष्य आज्ञाकारी होंगे।
शिष्य हर परिस्थिति में यीशु का अनुसरण करेंगे। क्योंकि प्रभु यीशु ने कहा कि वे लोग यीशु को प्रभु सिर्फ मुंह से ही नहीं बोलते हैं बल्कि वो अपने आज्ञाकारिता के द्वारा इसे प्रकट भी करते हैं। वे उस बुद्धिमान मनुष्य के समान है जो अपने घर को चट्टान पर नीव खोदकर बनाता है। यह इसलिए कि वह न सिर्फ सुनता है बल्कि अपने जीवन में उसे लागू भी करता है। (Luke 6:46-49)
यदि तुम मेरे वचन में बने रहोगे तो सचमुच मेरे चेले ठहरोगे। यूहन्ना 8:31
यीशु ने उन से कहा जिन्होंने उसके ऊपर विश्वास किया था कि यदि तुम मेरे वचन में बने रहोगे तो सचमुच मेरे चेले ठहरोगे। (John 8:31) ध्यान दें कि यीशु ने किनसे कहा? उन विश्वास करने वाले यहूदियों से। इसी आयत में हम देख सकते हैं कि दो प्रकार के लोग हैं। एक वे जो विश्वास करते हैं, एक वे हैं जो उसके वचन में बने रहते हैं। जो उसके वचन में बने रहते हैं वे ही प्रभु यीशु के शिष्य हैं। यीशु ने उनसे यह नहीं कहा कि तुम सचमुच मेरे विश्वासी ठहरोगे, पर यह कहा कि तुम सचमुच मेरे चेले ठहरोगे।
शिष्य प्रेम करने वाले होंगे।
प्रेम करना शिष्यों की पहचान बताता है कि वे सचमुच में यीशु के शिष्य हैं। यीशु ने पूरे जगत के पापों को अपने ऊपर उठाकर यह नमूना अपने शिष्यों को भी दिया है कि वे भी सिर्फ अपने लिए न जीकर दुनियां के लिए जीना सीख लें। वे एक दूसरे से प्रेम रखें, निस्वार्थ प्रेम क्योंकि दुनियां इस बात से जानेगी कि ये सचमुच प्रभु यीशु के चेले हैं। (John 13:34-35)
“मैं तुम्हें एक नई आज्ञा देता हूँ कि एक दूसरे से प्रेम रखो; जैसा मैं ने तुम से प्रेम रखा है, वैसा ही तुम भी एक दूसरे से प्रेम रखो। यदि आपस में प्रेम रखोगे, तो इसी से सब जानेंगे कि तुम मेरे चेले हो।” यूहन्ना 13:34-35 HINDI-BSI
शिष्य फलवंत जीवन जीने वाले होंगे।
फलवंतता भी एक शिष्य की पहचान है। यीशु ने स्पष्ट कर दिया कि एक डाली यदि दाखलता में बनी रहेगी तो अवश्य ही फल लाएगी। वास्तव में उन्होंने एक शिष्य के साथ अपने संबंध को बताते हुए इस बात पर जोर दिया कि फलवंत जीवन के लिए उसके साथ जुड़े रहना बेहद आवश्यक है। उससे अलग रहना एक शिष्य को विनाश की ओर ले जाएगा, जबकि उससे जुड़े रहना एक फलदाई जीवन की ओर ले जाएगा। (John 15:8)
“मेरे पिता की महिमा इसी से होती है कि तुम बहुत सा फल लाओ, तब ही तुम मेरे चेले ठहरोगे।” यूहन्ना 15:8 HINDI-BSI
यहां ये दोनों ही प्रकार के फल की बात हो रही है, अर्थात् जब एक शिष्य किसी आत्मा को प्रभु के पास लाते हैं तो स्वर्ग में बड़ा आनंद होता है। और यहां आत्मिक फल की बात भी हो रही है। एक शिष्य के जीवन में आप यह फल जरूर पाएंगे जैसे कि प्रेम, आंनद, शांति, धीरज, कृपा, भलाई, विश्वास, नम्रता और संयम। ये बातें जब किसी व्यक्ति के जीवन में होंगी वो ही प्रभु यीशु का शिष्य होगा। जिससे परमेश्वर को महिमा भी मिलेगी। (John 15:8) ये आत्मिक फल यीशु के साथ निरंतर जुड़े रहने का परिणाम हैं।
- शिष्य अपना इंकार करने वाले होंगे।
- शिष्य भी क्रूस उठाने वाले होंगे।
- शिष्य हमेशा कीमत चुकाने के लिए तैयार रहेगा।
- शिष्य कभी अपने आपको संसार के कामों में न फंसायेंगे।
- शिष्य कभी समझौता नहीं करेंगे।
- शिष्य पथ प्रदर्शक होगा।
- शिष्य दुनियां के लिए नमक व ज्योति बनेंगे।
- शिष्य जगत के लिए उमड़ने वाले सोते बनेंगे।
- शिष्य यीशु को अपने जीवन में प्राथमिकता देंगे।
- शिष्य पहचान लेंगे कि अनंत जीवन की बातें केवल यीशु के ही पास है।
- शिष्य हमेशा प्रभु यीशु की संगति में रहेंगे।
- शिष्य दुनियां को बदलने वाले होंगे।
- जैसा यीशु के स्वभाव था शिष्य का स्वभाव भी वैसा ही होगा।
वो सिर्फ चिन्ह चमत्कारों के लिए, चंगाई के लिए या अपना नाम ऊंचा करने के लिए यीशु के पीछे नहीं होंगे; बल्कि वे जान लेंगे कि यीशु ही प्रभु है और उसकी प्रभुता को अपने जीवन में स्वीकार करेंगे। इस प्रकार वो यीशु के नाम को ऊंचा उठाने वाले होंगे। एक शिष्य हमेशा समाज में एक उदाहरण अथवा मिसाल पेश करेगा।
आप क्या बनना पसंद करेंगे, एक नामधारी विश्वासी या एक शिष्य? मेरा लक्ष्य आपको भटकाना नहीं है वास्तव में एक शिष्य भी एक विश्वासी हैं क्योकि उसने यीशु को अपना प्रभु करके स्वीकार किया है और उस पर मन को फिराकर विश्वास भी किया है। परन्तु कुछ ऐसे समूह हैं जो कह सकते हैं कि हम भी यीशु के ऊपर विश्वास करते हैं पर वे अपने कामों के द्वारा इसका इंकार करते हैं अर्थात उनके फलों से उनकी जीवन शैली से आप उनको पहचान पाएंगे कि वे एक नामधारी विश्वासी हैं।
क्योंकि एक विश्वासी, एक शिष्य बन सकता है; पर एक शिष्य के लिए नामधारी विश्वासी बन कर रहना सम्भव नहीं क्योंकि वो जानता है कि दुष्टात्माएं भी परमेश्वर पर विश्वास करती है और थरथराती हैं। (याकूब 2:19) वास्तव में याकूब यह बात इसलिए कहता है कि हमारा विश्वास कर्म सहित हो न कि कर्म रहित क्योंकि कर्म बिना विश्वास व्यर्थ होता है। (पढ़ें याकूब 2:14-26)
“तुझे विश्वास है कि एक ही परमेश्वर है; तू अच्छा करता है। दुष्टात्मा भी विश्वास रखते, और थरथराते हैं।” याकूब 2:19 HINDI-BSI
एक शिष्य होने के नाते अब आप की क्या योजनाएं हैं कि आप आने वाले समय में उनको पूरा होते हुए देखना चाहते हैं, और परमेश्वर के राज्य में अपना योगदान देना चाहते हैं? एक शिष्य ये बात भली भांति जानता है कि उसका कार्यक्षेत्र ही है जहाँ उसे ये बात साबित करनी है कि वह वास्तव में प्रभु यीशु का शिष्य है। जबकि नामधारी विश्वासी, विश्वासी है ही नहीं क्योंकि परमेश्वर की संप्रभुता पर तो दुष्टात्माएं भी विश्वास करती हैं और थरथराती हैं। अब सवाल ये भी उठता है कि आप किस प्रकार के विश्वासी हैं?